Tuesday, September 28, 2010

पत्र संख्या-5

                                                                                                 
पटना, 20. 8. 01.                                                                                                  
आदरणीय मामू                                                                                                     प्रणाम।                                                                                                                    

पटना में आपसे दुबारा न मिल सका इस बात का अगली मुलाकात तक दुःख बना रहेगा। अशोक से मालूम हुआ कि दिल्ली में भी आप मेरी कविताओं को याद कर रहे थे। मेरे लिए यह संतोष से ज्यादा गर्व की बात है। उसके आगे भी मैंने कुछ कविताएं लिखी हैं-एक छोटी और एक अपेक्षाकृत बड़ी।

लोक दायरा आपको कैसी लगी इस बारे में अवश्य पत्र लिखेंगे। आपके पत्र को छापकर हमलोग सम्मानित महसूस करेंगे। कुछ अच्छी जगहों पर इसकी चर्चा हो तो बेहतर हालांकि मुझे खुब मालूम है कि इसके लिए अलग से आपको बताने या कहने की जरूरत नहीं। यह तो आपकी आदत में शामिल है।

हमलोग एक पृष्ठ समीक्षा के लिए देना चाह रहे हैं। हालांकि दूसरे अंक में कुछ ज्यादा गद्य शामिल कर लिया गया है।

समीक्षा के लिए सबसे उपयुक्त हमलोगों को आप ही लगे। आप सबसे ताजा पुस्तकों के संपर्क में रहते हैं और साथ ही किसी विषय पर एक स्पष्ट और वैज्ञानिक राय होती है। इसलिए बीच-बीच में कुछ भेजने की कृपा करेंगे। राधेश्याम मंगोलपुरी का पता भेज देंगे ताकि मैं उन्हें प्रति भेज सकूं। सही चीजें सही आदमी के पास होनी चाहिएं। नवल जी और अरुण कमल की राय ठीक है। अगला अंक भी शीघ्र ही आनेवाला है। आप जल्द ही उसे देख सकेंगे। मामी को मेरा प्रणाम कहेंगे। प्रतीक्षा में।
राजू रंजन प्रसाद

पत्र संख्या-4

पटना, 20. 8. 01.
आदरणीय व्यथित जी
प्रणाम।
आपको जानकर खुशी होगी कि कुछ लोगों को इकट्ठा कर मैंने ‘लोक दायरा’ नाम से त्रैमासिक (अघोषित रूप से) पत्रिका निकालनी शुरू की है। पिछले माह मामू (रामसुजान अमर) पटना आये थे। उन्हें लोक दायरा  की कुछ प्रतियां देने के साथ ही मैंने अपनी नई-पुरानी तमाम कविताएं सुना दी। उन्होंने भी उसे काफी धैर्य और गंभीरता के साथ एकल और अनौपचारिक काव्य-पाठ का भरपूर आनंद लिया। उनकी टिप्पणी थी कि मेरे गद्य से कविताएं कहीं बेहतर हैं। हालांकि यह सुनकर मैं बहुत प्रसन्न नहीं हुआ क्योंकि मैं अपने को मूलतः गद्य के लिए ही बना हुआ आदमी मानता हूं। अशोक हरियाणा गए  थे साक्षात्कार के क्रम में। लौटने के क्रम में वे  मामू से भी मिले । वे काफी खुश होते हुए बता रहे थे कि इस बार की पटना की उनकी यही उपलब्धि रही कि वे एक कवि को ढूंढ़ निकाले। ऐसा कहना उनकी महानता है। ऐसा कहते हुए मैं आत्म मुग्ध नहीं हूं बल्कि अपनी कविता के रिकॉग्निशन को लेकर थोड़ा उत्साहित  हूं। मुझे लगा कि कविता में मेरी अभिव्यक्ति हो जा रही है-इसी का संतोष है। कुमार मुकुल के संग्रह की समीक्षा के बारे में आपने लिखा था कि ‘बहुमत’ या विकल्प  के किसी अंक में आ जाएगा। अभी स्थिति क्या है लिखेंगे। आपकी अवांछित व्यस्तता जानकर दुःख होता है। लेकिन बहुत संजीदगी से हल ढूंढ़ निकालने की जरूरत है। एक अत्यंत ईमानदार आदमी को हिन्दी खोना नहीं चाहेगी। खासकर मैं, जो हॉस्टल (पटना) के दिनों से साक्षी रहा हूं, बहुत साधारण तरीके से नहीं खो सकता क्योंकि मुझे पता नहीं क्यों हमेशा एक ईमानदार आदमी की तलाश रही है चाहे वह साहित्य या संस्कृति का ही क्षेत्र क्यों न रहा हो। लोक दायरा  की प्रति शीघ्र भेज रहा हूं।
आपका
राजू

Monday, September 27, 2010

पत्र संख्या-3

पटना, 14. 9. 96।

प्रिय अमरेन्दु जी
आपका पत्र पाकर मैं कृतज्ञ हुआ इसलिए साधुवाद भेज रहा हूं। आप क्षुद्र और कूपमंडूक हैं, मैं नहीं जानता। अज्ञान अब भी प्रबल है इसका साक्षी आपका खत, अब भी मेरे पास संजोकर रखा पड़ा है। आपके लिए ‘अज्ञानता ही संबल है’। मेरी जानकारी में अज्ञानता कोई शब्द नहीं, शब्द है अज्ञान और यह किसी का संबल नहीं। आगे आपकी मर्जी। वैसे मेरे पास कोई शब्दकोश नहीं है। आप मुझे भी बता देंगे, मेरा हिन्दी ज्ञान समृद्ध ही होगा।

बहुतों को आपका पत्र पसंद आया। पहली नजर में हमें भी जंचा था, बाद में लगा कि निरा शब्दजाल है जो अर्थ खो चुका है आपके अस्तित्व की तरह जो सिर्फ जिद में खड़ा है। मुझे अब वे पसंद नहीं आते जो शब्द को पत्थर की तरह दूसरों को आहत करने के लिए फेंकते हैं। पत्थर फेंककर आम तोड़ने की उमर तो रही नहीं, अभ्यास भी छूट गया।

खैर शब्दों को अपनी राह जाने दें, कर्म को पकड़ बैठें।

राजू रंजन प्रसाद

Saturday, September 25, 2010

पत्र संख्या-2


पत्र संख्या-2
पटना, 20. 8. 01।
प्रिय अमरेन्दु जी
नमस्ते।
यहां सब ठीक-ठाक चल रहा है। लोक दायरा का प्रवेशांक आपकी कविता के साथ जून में आ चुका है। मैंने कहा भी था कि आप कुछ कविताएं अगलें अंक के लिए भेज दें। लेकिन आपने ऐसा न किया। शायद निमंत्रण-पत्र का इंतजार रहा हो अपने प्रिय कवि अरुण कमल की तरह। बात यह है कि ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका का युवा विशेषांक आ रहा है जिसके लिए मैं और मुकुल जी उनसे साक्षात्कार लेने गये थे। बोले कि मुझे तो लिखित पत्र चाहिए। अलबत्ता, लोक दायरा की प्रति उन्होंने पैसे देकर खरीदी। नवल जी को प्रति मैंने सम्मान के बतौर दी। उन्होंने भी उधार न रखा-‘जनपद’ की एक-एक प्रति और अपने द्वारा एक संपादित पुस्तक भी दी। कुछ दिन पहले मैंने उन्हें एक पत्र लिखा था,  जवाब बड़ा ही संतुलित दिया। लगता है मन निर्मल होता जा रहा है। घंटों बातचीत हुई। आपके बारे में पूछ रहे थे। उनकी इच्छा है कि आप उन्हें पत्र लिखें। ऐसा वे कह रहे थे। इधर मैंने कई नई कविताएं लिखी हैं। ‘युद्धरत आम आदमी’ में मेरी भी कविताएं होंगी। आप अपनी कुछ कविताएं भेज सकें तो कृपा होगी। लोक दायरा की प्रति बुक पोस्ट से भेज रहा हूं। मिलने पर सुझाव एवं शिकायत अवश्य लिखेंगे। दूसरा अंक शीघ्र ही आ रहा है। प्रतीक्षा में।

धन्यवाद
राजू रंजन प्रसाद

Thursday, September 23, 2010

मेरे पत्र जो छोड़े नहीं गये -------पत्र संख्या-1

पटना, 24.5.।                                                                                                      
अग्रज मुकुल जी                                                                                                          नमस्ते।                                                                                                              

आपके दो अलग-अलग पत्र मिले। विस्तृत जानकारी मिली। कल सोनू को टाटा के लिए स्टेशन छोड़ आया था। तत्पश्चात् अचानक पीठ में जोरों का दर्द महसूस करने लगा। आज कहीं जाकर थोड़ा बेहतर महसूस किय। आपके जाने के ठीक बाद नवल जी को मैंने किताब लौटा दी थी। उन्होंने अपना डेरा बदल लिया है। पास ही में है। फोन नं. वही पुरानावाला रहेगा। आपके कहे अनुसार गोपेश्वर जी से भी मुलाकात की। थोड़े 'गंभीर' हो चले हैं। डा. विनय कुमार स्वस्थ हैं। मनीष अपने तमाम लक्षणों के साथ चंगा है। लोक दायरा  के लिए आवश्यक तैयारी हो चुकी है। अंक बेहतर हो सकेगा। मणि जी अपना लेख नहीं दे सके हैं। रविवार को दे डालने का निश्चय किया है। मणि जी तक आपका प्रणाम मैंने पहुंचा दिया। काफी खुश हुए। पी-एच.डी का मेरा काम तेजी से आगे बढ़ रहा है। कुमार किशोर से मिलकर आपके ‘न्यूजब्रेक’ वाले पैसे की पूछताछ करूंगा। आर.पी.एस. स्कूल में मैंने इन्टरव्यू दिया था। संभव है, वहीं चला जाऊं। छुट्टी के दिन वहां ज्यादा हैं। अपने काम के लिए अवसर कुछ ज्यादा मिल सकेगा। शिवदयाल जी से फोन करके ‘ज्ञान-विज्ञान’ में आपकी कविता के बारे में जानकारी ले लूंगा। ‘हंस’ में अभी कविता प्रकाशित नहीं हुई है। ‘इस बार’  के बारे में भी कोई विशेष जानकारी नहीं है। मधुकर जी से मिलना पड़ेगा। अलबत्ता सहमत  के ताजा (जनवरी-मार्च) अंक में इतिहास वाला लेख जिसे आपने न्यूजब्रेक  में छापा था, आ चुका है। एक भी शब्द काटा नहीं गया है। नवल जी के अनुसार पटना अब अरुण कमल के लिए खाली पड़ा है। असंदिग्ध सफलता हाथ लगेगी। यहां लालू की बेटी की शादी की चर्चा हिन्दी-अंग्रेजी अखबारों का मुख्य विषय बन चुकी है। लोक दायरा-4 छपते ही भेजूंगा। इस अंक को कैफी आजमी को समर्पित करने की योजना है। ‘युद्धरत आम आदमी’ का प्रतीक्षित अंक उपलब्ध नहीं हो सका है। हाथ लगते ही सूचित करूंगा। बाकी सब मजे में हैं। अजय-श्रीकांत से संपर्क कायम है। आज पत्नी ने टाटा फोन किया था। सब कुशल हैं। पिताजी इधर घर गये थे। सब ठीक-ठाक है। जावेद अख्तर को दो अंक भिजवा दिया है। चौथे अंक के साथ मिलूंगा। उन्हें भी आजीवन सदस्य बनाने की योजना है। एक सदस्य की और बढ़त हुई है। मन लगाकर/मारकर काम करेंगे। विशेष अगले पत्र में.                                                                                                       
राजू रंजन प्रसाद

Wednesday, September 22, 2010

पत्र संख्या-38

भागलपुर: 25 मार्च 2010।

चि. राजू जी,
सप्रेमाशीष,
आपका भेजा मूल्यवान उपहार ‘The Past and Prejudice’ मिला। बहुत ही रोचक और तथ्यपूर्ण बातों की जानकारी हुई। जन्मदिन के उपलक्ष्य पर भेजे उपहार के लिए कोटिशः धन्यवाद।
आपका
बाबूजी

Sunday, September 19, 2010

पत्र संख्या-37

जी डी 44 साल्टलेक,
कोलकाता, 30.07.2004।

आदरणीय राजू रंजन प्रसाद जी!

समकालीन कविता-
वर्ष 1-अंक 3 के पन्ने-
पंक्तियां आपकी-
वैसी भी होती है एक शाम
जब आंगन में पड़ा
मिट्टि (मिट्टी) का चूल्हा उदास होता है
और एक शाम आती है
वीरान गांवों में
आतंक और भय की चुप्पी के साथ
ख़ूबसूरत पंक्तियां-
खू़बसूरत कविता-
काव्यम् परिवार की तथा मेरी बधाई-

आशा है आप सानंद हैं.
आपका
प्रभात पाण्डेय 

Sunday, September 12, 2010

पत्र संख्या-36

केलंग, 20. 8. 2003.                                                                                                        
प्रिय श्री राजू रंजन जी,                                                                                                 
आपका कार्ड मिला। पत्रिका नहीं मिली। कोई भी पुरानी प्रति अवश्य भेजें। मालूम पड़ेगा, उधर लोग क्या लिख रहे हैं। ‘कथादेश’ वाले शायद कविताएं छापें। मैं फिलहाल कविताओं के अलावा कुछ भी नहीं लिख रहा। और खास कुछ पढ़ भी नहीं रहा। पीछे एक किताब शुरू की थी हिटलर की आत्मकथा ‘‘Mein Kampf ! मेरे छोटे से दिमाग के किसी खाने में फिट ही नहीं बैठते महाशय के विचार। किताब लाईब्रेरी की न होती तो शायद जला ही डालता। लेकिन कभी न कभी अवश्य पढूंगा। अभी शायद मुझमें परिपक्वता नहीं आई है। विद्यार्थी जीवन में भारतीय इतिहास में डूबा रहा। बाद में अस्तित्त्ववाद को पकड़ने की कोशिश की। नाकाम रहा। मुक्तिबोध की कविताओं ने मुझे मार्क्सवाद की ओर खींचा। वही ढाक के तीन पात। पूरी युवावस्था मैं वैचारिक उलझनों में पड़ा रहा। अन्त में रजनीश ने काफी गुत्थियां सुलझाईं। 90 से 95 तक रजनीश के अलावा और कुछ नहीं पढ़ा। फिर नौकरी मिली तो काम और कविता। पढ़ने के लिए वक्त नहीं है। वैसे रजनीश की तरफ खिंचने का मुख्य कारण उनकी तीखी व्यंग्यात्मकता तथा ‘‘काव्यात्मकता अभिव्यक्ति’’ रहा। रजनीश के भीतर मैंने संवेदनाओं का सघन पुंज पाया जो बहुत ही संतुलन के साथ उनके प्रवचनों में पिघल-पिघल कर बह रहा है। मैं ‘हंस’ पत्रिका का नियमित ग्राहक भी हूं। शेष अगली दफा। संपर्क में रहें .                                                                               आपका                                                                                                             
अजेय

Saturday, September 11, 2010

पत्र संख्या-35

केलंग, 25. 06. 2003।
प्रियवर,
भारतेन्दु शिखर  में आपकी कविताएं पढ़ीं। कविता संबंधी आपके विचार भी। जाहिर है प्रभावित होकर पत्र लिख रहा हूं। आप के विचार ‘‘युवा पीढ़ी की कविता के प्रति प्रतिबद्धता’’ को पुष्ट करते हैं। आज की कविता के औचित्य एवं महत्व की वकालत भी करते हैं।

मुझे अफसोस है कि हिन्दी क्षेत्र में कविता संबंध में कुछ अजीबो-गरीब धारणाएं बना ली गई हैं। अच्छे स्थापित साहित्यकार भी गलतफहमी का शिकार हैं। कविता महज ‘‘क्रान्ति का नारा’’ नहीं है उससे परे वह एक संवेदना है जो हममें मानवीयता का पोषण करती है। इस से बढ़कर कविता से कुछ और उम्मीद करना हमारी ज्यादती है। यही मेरी चिन्ता का विषय है।

वस्तुतः कुछ लोग सत्ता और राजनीति की चकाचौंध से प्रभावित होकर कविता के महत्व को नकार रहे हैं। ऐसे दिग्भ्रान्त साहित्यिकों को टोकना बहुत आवश्यक है। और हमारी पीढ़ी को ही यह उत्तरदायित्व निभाना है। आओ, हम गड़रिए बनें। उन भटके हुए पशुओं को सही मार्ग पर रखें। अपनी काठियां ज़रा और कठोर और भारी बनाएं। साहित्य या किसी भी कला को ‘‘सीढ़ी’’ बनने से बचाएं। कुछ कविताएं भेज रहा हूं। प्रतिक्रिया देंगे।
पुनश्च-छापना चाहें तो यथोचित संशोधन/संपादन कर के छाप सकते हैं। कविताएं अप्रकाशित हैं।

आपका
अजेय                                                                                                                   
प्रसार अधिकारी (उद्योग)                                                                                              
जिला उद्योग केन्द्र, केलंग                                                                                          
175132.

Friday, September 10, 2010

पत्र संख्या-34

गुलबीघाट, पटना-6: 24.10. 2000.

प्रिय भाई,
आपका कार्ड पाकर प्रसन्नता हुई, भले उसे एक रुपया जुर्माना देकर डाक से छुड़ाना पड़ा, क्योंकि आपने पंद्रह पैसेवाले कार्ड का उपयोग किया था, जबकि उसका दाम फिलहाल पच्चीस पैसे है। खैर!

‘कसौटी’ आपको पसंद आई, यह मेरे लिए संतोष की बात है। उसके पंद्रह अंक ही मुझे निकालने हैं और हफ्ता दिन पहले उसका पांचवां अंक भी दिल्ली में निकल गया है। आशा है, चार-छः दिनों में वह पटना भी पहुंच जाएगा। चौथे अंक में अशोक वाजपेयी पर मेरी टिप्पणी पर आपको कुछ एतराज है, तो ठीक ही है, क्योंकि मैं अब अगर-मगरवाली भाषा लिखने लगा हूं। कारण यह है कि युवावस्था की विदाई के साथ चीजें अपनी जटिलता में प्रकट होने लगती हैं और काला और सफेद रंग पहले की तरह साफ-साफ आकार दिखाई न पड़कर चितकबरे रूप में दिखलाई पड़ने लगते हैं।

आपने ‘साक्ष्य’ के अंक में मेरा लंबा लेख भी पढ़ा, इससे मुझे आत्मिक आह्लाद हुआ। बचपन में पढ़ाया गया था कि दर्शन, प्राण आदि शब्दों का बहुवचन में प्रयोग होता है, लेकिन यह सही नहीं है। हिंदी में ये शब्द दोनों वचनों में प्रयुक्त होते हैं, जो गलत नहीं है। किशोरीदास वाजपेयी का कहना है कि विसर्ग हिंदी की चीज नहीं, इसलिए ‘छः’ की जगह ‘छह’ लिखना चाहिए, जिससे ‘छहों’ बन सके। इस सुझाव को मान लिया गया, तो ‘छिः’ का क्या करेंगे? डा. कपिलमुनि तिवारी ठीक कहते हैं कि भाषा में कुछ चीजें rational होती हैं और कुछ irrational, जिससे उसमें सर्वत्र एकरूपता नहीं लाई जा सकती। मैं भी पहले ‘छह’ ही लिखता था, पर जानकारी बढ़ने के साथ वाजपेयी जी से पीछा छुड़ाया। ‘सोच’ शब्द कायदे से हिंदी में स्त्रीलिंग ही होना चाहिए, क्योंकि यह ‘सोचना’ क्रियापद से बना संज्ञापद है, जैसे ‘समझना’ से ‘समझ’, लेकिन इसका प्रयोग भी दोनों लिंगों में होता है। दिनकर जी से संबंधित वाक्य में ‘आया’ ही होना चाहिए। लगता है यह प्रूफरीडर का कमाल है। मेरे पास लेख की मूलप्रति कि मिलाकर देख सकूं।
अंत में: मित्र से डर कैसा ?

सधन्यवाद
नवल

Wednesday, September 8, 2010

पत्र संख्या-33

पटना, 24. 3. 2003.

संपादक महोदय,
अंक 5 में प्रकाशित अमरेन्द्र कुमार की कविता वाकई अच्छी है। आदमी के जद्दोजहद, पीड़ा और संवेदना को व्यक्त करती अमरेन्द्र की कविता अंदर तक छू जाती है। परंतु पढ़ने के बाद यह बोध भी हुआ कि आदमी से पीड़ा बड़ी है-क्या ऐसा उचित है ? कविता और कवि दोनों में इससे बाहर निकलने की छटपटाहट होनी चाहिए।

अशोक कुमार
राजेन्द्र नगर, पटना.

Tuesday, September 7, 2010

पत्र संख्या-32

                                                                                            
दिल्ली, 22. 2. 05.
आदरणीय राजू भैया,

आपके लिए अभिवादन जैसी औपचारिकता से बचना चाह रहा था मैं दरअसल। लेकिन मेरा पारम्परिक मन इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है इसलिए मैं आपको एवं भाभी जी को प्रेमाभिवादन करता हूं। यह कार्ड मुकुल जी के पटना जाने से पहले से ही आपके नाम के साथ पड़ा है। हर दिन सोचता हूं कि आपको लिखूं लेकिन समझ में नहीं आता कि आखिर लिखूं तो क्या? अब क्या इस पीड़ा को व्यक्त करने से कि क्यों मणि जी जदयू से चुनाव लड़ गये, बहुत बुरा हुआ क्या कुछ मिलेगा। सच कहता हूं भैया इतनी गहरी पीड़ा पहुंची कि मैं आपको बता नहीं सकता। मणि जी से हमलोगों को बहुत सारी अपेक्षाएं थीं, जो व्यक्ति आर. एस. एस. का व्यक्तिगत बातचीत में इतना विरोधी हो, वह कैसे मौका पाते ही अपनी तमाम अर्जित सदगुणों को क्षणभर में ही ध्वस्त कर देता है। इधर मैं लगातार पुस्तक समीक्षाओं का इंतजार कर रहा हूं। पता नहीं आप कब तक उसे भेजेंगे। चन्द्रमोहन प्रधान का जो इण्टरव्यू आपने लोक दायरा में छापा था उसकी प्रति अगर उनकी तस्वीर के साथ मुझे मिले तो मैं उसे प्रभात खबर में छापूंगा। और हां 04 में लोकदायरा के जितने भी अंक प्रकाशित हुए हैं उसकी एक-एक प्रति मुझे अविलंब मुहैया करायें। मैं ‘आजकल’ के लिए 04 की पत्रिकाओं पर एक लंबा लेख लिख रहा हूं। मनीष भाई कैसे हैं ? यहां मुकुल जी अपने मोर्चे पर डटे हुए हैं। शेष सकुशल
आपका अभिन्न
अरुण
यू. एन. आई अपार्टमेंट, फ्लैट 27, सेक्टर 11 गाजियाबाद,
दिल्ली।

पत्र संख्या-31

अक्तूबर 25’07, दिल्ली

आदरणीय प्रसाद जी
सादर नमस्कार
‘आजकल’ के सितंबर ’07 अंक में प्रकाशित आपकी कविताएं वास्तव में समकालीन विसंगतियों का बड़ा ही मनोहारी चित्रण करती हैं: ‘जहां कोई भी असभ्य राहगीर/चलते-चलते मूत्र-त्याग की इच्छा रखेगा !’ ‘नया साल’ कविता भी मुझे बढ़िया लगी। आपका कवि बहुत समर्थ है और यह सामर्थ्य ‘नया साल’ के सुस्पष्ट बिम्ब-निर्माण में साफ-साफ झलकती भी हैः ‘झुर्रियों की लम्बाई व गहराई’।

आपकी चारों कविताओं ने ऐसा काव्य-फलक खड़ा कर दिया है कि पत्र लिखने से खुद को रोक नहीं सका। बधाइयां ! आशा है, हिंदी साहित्य को इसी प्रकार उत्कृष्ट रचनाओं से समृद्ध बनाते रहेंगे।
आपका
प्रांजल धर

Monday, September 6, 2010

पत्र संख्या-30

संपादक महोदय,
लोक दायरा
राजकमल प्रकाशन से लोक दायरा घर में आई। पटना से पत्रिका प्रकाशित करना एक साहित्यिक जुनून ही है साथ ही मिशन भी। दोनों के लिए सर्वप्रथम शुभकामनाएं। आकार में छोटी, लोक दायरा की स्तरीय पाठ्य सामग्री से यह उम्मीद जगती है कि कल का दायरा शनैः शनैः बढ़ेगा ही। लोक दायरा के तेवर एवं मिशन के अनुरूप यह रचना भेज रही हूं जो आज के लिए प्रासंगिक है तथा समाज के सभी दायरे (सावधान कविता) में आई दरार की ओर लोक दायरा का ध्यान आकृष्ट करती है।

साथ ही डाक टिकट लगा लिफाफा भी संलग्न कर रही हूं ताकि स्वीकृति/अस्वीकृति की सूचना देने में आपको आसानी हो। सूचना अपेक्षित है ताकि मैं अपनी रचना सूचना के यथास्थिति के अनुकूल अन्यत्र भेजने न भेजने के बारे में निश्चित हो सकूं। कृपया प्रकाशन की स्थिति में अवधि का उल्लेख करें ताकि पत्रिका संकलित कर सकूं।
शुभकामनाओं के साथ

पाठिका

Saturday, September 4, 2010

पत्र संख्या-29

आमगोला, मुजफ्रपुर, 8.10.94।

प्रिय भाई,
आपकी सेवा में मैंने आपकी प्रश्नावलि का तो उत्तर भेज दिया था। मिला है कि नहीं, आपने लिखा ही नहीं।
कृपा कर सूचित करें।

विशेष शुभ
सादर आपका
चन्द्रमोहन प्रधान

Friday, September 3, 2010

पत्र संख्या-28

आमगोला, मुजफ्फरपुर, 15. 09. 94।
 
प्रिय भाई
आपको पत्र भेजा था। मिला होगा।
 
आपकी इच्छानुसार आपके प्रश्नों के वे उत्तर भेज रहा हूं। आप इस का यथासंभव असंक्षिप्त उपयोग करेंगे।
अन्य कुछ बात पूछनी हो तो पत्र लिख देंगे। शीघ्र उत्तर दे दूंगा।
 
यह लेख प्राप्ति की सूचना अवश्य ही देंगे।
सस्नेह,                                                                                                           
आपका
चन्द्रमोहन प्रधान

Thursday, September 2, 2010

पत्र संख्या-27

नयी दिल्ली, 28. 8. 2002।

प्रिय राजू,
मैं आज आई. सी. एच. आर. गया तो पता चला कि तुम्हारा चेक 30. 3 को ही भेजा जा चुका है। चेक नं. 557465, तिथि 30.3. 02 है।
अगर तुरंत इसे पता नहीं किया गया तो लैप्स करने का भी दिन नजदीक आ गया है।

यहां आकर पता चला कि न केवल तुम गैरजिम्मेवार हो, बल्कि बहुत बड़ा झूठा भी हो। तुम्हारी कोई चिट्ठी आइसीएचआर में नहीं आई है, सहायक ने मुझे पूरी संचिका दिखा दी।

अब मेंबर सेक्रेटरी के नाम चिट्ठी लिखना होगा, जो शोध-पर्यवेक्षक द्वारा अनुशंसित एवं विभाग द्वारा अग्रसारित होगा। इसके पूर्व कैशियर से मिलकर एक बार पुनः पड़ताल कर लेना होगा।

अशोक

Wednesday, September 1, 2010

पत्र संख्या-26

हैदराबाद, 10.6.02।                                                                                                                                  

प्रिय भाई राजू जी,                                                                                                     
आपका कार्ड मिला। पढ़कर बहुत अच्छा लगा। इतनी सारी सूचनाएं दी आपने एक साथ-पत्र लेखन में आपका जवाब नहीं। कल संपादक से थोड़ी गर्मा-गर्मी हो गई थी, काम छोड़ दिया था पर आज फिर मुझे रोक लिया गया। पटना वाली जंग यहां भी चल रही है और जीत भी हो रही है। हाथदर्द के लिए दवा है-सिन्नाबेरिस 200। यहां किताब नहीं है कोई, जरा योगेन्द्र प्रसाद से पूछ लेंगे कि यह दवा भी मर्करी से ही बनी है न। दवा सप्ताह में दो बार छः गोली लेनी होगी। आप शोधकार्य में भिड़े हैं यह अच्छा है। मनीष अच्छा होगा। टहलना मत छोड़िए वैसे मैं कब फिर साथ देने पहुंच जाउंगा कहा नहीं जा सकता। यहां सैलानी सिंह हैं एक हमारी विचारधारा के। अब पता में उनका नाम देना जरूरी नहीं। मेरा नाम काफी है। तस्लीमा अभी कलकत्ता में हैं कुछ सामग्री उनपर भेजूंगा ‘दायरा’ के लिए। मनोज जी, नलिन जी को नमस्कार। ऑफ लेना शुरू कर दिया है पिछले सप्ताह से। श्रीकांत-अजय को कहिएगा कि जल्दी ही व्यवस्था करें।                                      
 
कुमार मुकुल