Friday, November 19, 2010

2. प्रेमचंद की याद में

लेखन की प्रासंगिकता पर बहस होनी चाहिए लेकिन स्वस्थ। पूर्वाग्रह और पक्षपात की भावना से ग्रसित होकर किसी रचनाकार की रचनाओं का अध्ययन उचित नहीं होता। वैसा आलोचक कभी भी सफल आलोचक नहीं बन सकता। देशकाल की परिस्थितियां रचनाकर के लेखन को प्रासंगिक और अप्रासंगिक करार कर देती हैं। मेरी राय में जो व्यवस्था से लड़ना सिखाता हो, बेहतर जिंदगी के लिए दृष्टि प्रदान करता हो वही लेखन प्रासंगिक है, वही लेखक असली भी है। प्रेमचंद ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने लोगों को अपनी रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ अंग्रेजी राज बल्कि शोषण और दमन को बरकरार बनाये रखनेवाली व्यवस्था से लड़ने की ताकत पैदा की। जो साहित्य हक और अधिकार की बात करता हो वही असली साहित्य है।

प्रख्यात नामवर सिंह ने कहा है कि ‘‘देश की मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों में कोई भी ऐसा रचनाकार नहीं है जो राजसत्ता के समक्ष खतरा या चुनौती पैदा कर सका हो। लेखकों ने आज तक जनमानस को यह ‘‘विजन’’ या ख्वाब नहीं दिया है जिसे लेकर वे जी सकें।

इतना ही नहीं, प्रेमचंद जयंती के उपलक्ष्य में 1 अगस्त 87 को त्रिवेणी सभागार में भाषण देते हुए नामवर सिंह ने कहा था- ‘‘प्रासंगिक लेखक वही है जो अपनी सरकार के सामने चुनौती खड़ी कर दे। हमारे यहां भी बहुत से लेखक ब्रिटिश हुकूमत द्वारा पकड़े गये और फांसी पर भी चढ़े, लेकिन अपने लेखन के कारण नहीं बल्कि राजनीतिक विश्वास एवं विचारधारा के बल पर।’’ उनका यह भी मानना है कि ‘‘ वाल्मीकि के बाद के पूरे साहित्य में क्या तुलसी, क्या निराला, क्या मुक्तिबोध, प्रेमचंद या रवीन्द्रनाथ-कोई भी स्पष्ट रूप से राजसत्ता को चुनौती नहीं दे सके और न राजसत्ता ने ही उनके लेखन को चुनौती माना।’’ मैं अपनी विद्वता का दावा तो नहीं कर सकता लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूं कि प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने न केवल व्यवस्था को चुनौती देने की बात की है बल्कि वर्तमान युग में समस्याओं से घिरी पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प भी प्रस्तुत किया है। हालांकि नामवर सिंह ने यह कहते हुए कि ‘‘जहां तक जनता को विजन या ख्वाब देने का सवाल है, तुलसी, निराला और प्रेमचंद ने झूठा ही सही लेकिन एक विजन दिया जरूर था’’, व्यवस्था को चुनौती देने की बात अंशतः स्वीकार भी कर लेते हैं। फिर नामवर सिंह की बातों में अंतर्विरोध क्यों ?

प्रेमचंद का साहित्य एक सच्चा विकल्प है। प्रेमचंद की रचना वर्तमान शासन प्रणाली के लिए एक चुनौती भी है। दिसंबर 1936 के ‘‘हंस’’ में प्रेमचंद ने लिखा था-‘‘परंतु अब एक नयी सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूंजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है...

...इस समाज व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया के किसी सभ्यतम कहानेवाली जाति को भी सुलभ नहीं।...हां, महाजनी सभ्यता और उसके गुरगे अपनी शक्ति भर उसका विरोध करें, उसके बारे में भ्रमजनक बातों का प्रचार करेंगे, जनसाधारण को बहकावेंगे, उसकी आंखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है उसकी विजय होगी ही।

राजू रंजन प्रसाद

शास्त्रीनगर, पटना-23।

प्रकाशन: जनशक्ति , 23 अप्रैल १९८८.

Friday, November 12, 2010

मेरे प्रकाशित पत्र -1. धर्म, संप्रदाय और संप्रदायवाद

वर्तमान समय में धर्म हमारे लिए एक गंभीर खतरा है। खासकर पूंजीवादी विद्वानों द्वारा धर्म के बारे में इतना ‘‘मिथ’’ फैलाया गया है कि जनता को इसका असली चेहरा नजर ही नहीं आता। यही कारण है कि लाख विरोध करनेवाले तथा अपने को ‘‘सेकुलर’’ कहनेवाले लोग भी धार्मिक संस्कारों से मुक्त नहीं हैं। ऐसे में जब धर्म को लोकहित से जोड़ा जा रहा हो, बहस जरूरी हो जाती है।

धर्म को माननेवाले लोग एक से एक सुन्दर उदाहरण इसके पक्ष में प्रस्तुत करते हैं। वे धर्म का रिश्ता दैवयोग से जोड़ते हैं। धार्मिक पंडितों के अनुसार धर्म का संबंध पवित्रता से है। उनलोगों का यह मानना है कि धर्म हमें सदाचार सिखलाता है, गलत कामों से दूर रहने का उपदेश देता है। धर्म हमें सत्य की रक्षा के लिए जान देने को कहता है-ऐसे हजारों तर्क हमें आस्तिकों की तरफ से सुनने को मिलते हैं। ऐसे में कभी-कभी यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि धर्म की इतनी सारी अच्छाइयों के बावजूद उसका विरोध क्यों ?

मार्क्सवाद धर्म का विरोध करता है क्योंकि वह इसे शोषण का एक प्रबल औजार मानता है। मार्क्स ने लिखा था कि धर्म का निर्माण मनुष्य करता है, मनुष्य का निर्माण धर्म नहीं करता। धर्म मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण करना बताता है। इतिहास इस बात का गवाह है कि धर्म के नाम पर भावुक जनता का काफी लंबे अर्से तक शोषण किया गया है।

जाहिर है ऐसे में धर्म जनता के लिए घातक साबित होने लगता है। एंगेल्स ने कहा था कि धर्म सामाजिक चेतना का एक रूप है। इस संदर्भ में यह कहना गलत न होगा कि धर्म सामाजिक चेतना का एकमात्र ऐसा रूप है जो परिवेशी विश्व को विकृत तथा काल्पनिक ढंग से प्रतिबिंबित करता है। मार्क्स ने कहा था कि ‘‘धर्म मानव के सारतत्व को अजीबोगरीब वास्तविकता में बदल देता है।’’

हाल ही में जनशक्ति में भोगेन्द्र झा का लेख प्रकाशित हुआ है-‘‘धर्म, संप्रदाय और सम्प्रदायवाद।’’ इस लेख में धर्म को लोकहित में साबित किया गया है। श्री झा का यह मानना कि संसार से बेकारी, अशिक्षा और गरीबी को मिटाना सबका धर्म है, समस्त मानवजाति की भलाई हर व्यक्ति का धर्म है, धर्म के गंदे और घिनौने चेहरे पर पर्दा डाल देता है। धर्म की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत किये जाने पर किसी भी सचेतन प्राणी (मनुष्य) को यह सवाल करने का हक बन जाता है कि धर्म अगर मानवता की शिक्षा देता है, गरीबी मिटाता है तो विश्व के अधिकतर लोग धार्मिक हैं फिर गरीबी और अशिक्षा बढ़ती क्यों जा रही है ? धर्म कहीं अधर्म तो नहीं सिखाता ?

श्री झा ने यह दिखाने की कोशिश की है कि धर्म विशेष ने गरीबी और असमानता दूर करने का प्रयास किया है। आपने इस्लाम धर्म को मानवता का प्रचारक माना है। इस्लाम में आपने लोकहित का भी दर्शन किया। मैं प्रश्न करना चाहूंगा कि क्या इस्लाम असमानता को दूर कर सकता है ? इतिहास साक्षी है कि अब तक लाख प्रयास के बावजूद धर्म गरीबी को दूर नहीं कर सका। फिर इस्लाम को मसावात (बराबरी) का प्रचारक कैसे माना जा सकता है ? इतिहास इस बात का भी गवाह है कि भारत में नारियों का सबसे ज्यादा शोषण मध्य युग में हुआ है। ऐसे में धर्म को कैसे माना जाये कि यह लोकहितवादी है।

ईसाई धर्म को आपने ज्यादा उदार दिखाया है। ईसाई धर्म का यह उपदेश कि गरीब भगवान के ज्यादा करीब होते है, ईसा मसीह ने आध्यात्मिक दर्शन देकर जनता को धर्म के जाल में उलझा देने की कोशिश की। ऐसे करके उन्होंने अधिकार की लड़ाई से वंचित कर दिया। जो धर्म हमें अधिकार की लड़ाई से विमुख कर दे वह लोकहितवादी कैसा ?

श्री झा की राय में धार्मिक लोग भी ‘‘सेकुलर’’ होते हैं। लेकिन यह सही नहीं जान पड़ता। दरअसल ‘‘धर्म अफीम है।’’ जो व्यक्ति धार्मिक है उसमें धर्म विशेष के प्रति पूर्वागह और पक्षपात की भावना होगी ही। यही धार्मिक पूर्वाग्रह और पक्षपात की भावना धर्म को लोकहित से दूर ले जाती है जो इसका असली स्वभाव है। जाहिर है, धर्म अफीम है।

राजू रंजन प्रसाद
शास्त्रीनगर, पटना-23।
प्रकाशन: जनशक्ति , 21 अप्रैल 1988।



fromNirmla Kapila
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dateSat, Nov 13, 2010 at 10:59 AM
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रंजन जी नमस्कार। आपके ब्लाग पर ये कमेन्ट नही हो सका कृ्प्या इसे वहाँ पोस्ट कर दें। धन्यवाद।
कमेन्ट
मेरा मत है कि धर्म केवल एक आस्था है जिस का सहारा ले कर आदमी केवल अपने स्वार्थ पूरे करता है चाहे पूजा पाठ हो या कुछ और । इसे ही वो धर्म मान लेता है। जब साध्य से साधन को ही धर्म माना जाने लगे तो धर्म का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यही हो रहा है। आस्था जीने का एक संबल है और गरीब आदमी के पास इसके सिवा है भी क्या? ये भी सत्य है कि उसकी इस आस्था से ही उसका शोषण होता है\ ये धर्म का विकृ्त रूप है जो हमारी अस्था को या धर्म को हम से दूर ले जाता है। आज के युग मे आदमी के पास जीने के लिये बहुत कुछ है लेकिन तब के युग मे केवल धर्म था। फिर भी अपने वेद पुराण उठा कर देखें तो धर्म क्या है ये पता चलता है जबकि हम लोग धर्म के प्रतीकों को धर्म मानने लगते हैं। धर्म राम नही है, राम के आदर्श हैं जो हमे कहानी के रूप मे बताये गये हैं। धर्म इतना उलझ गया है कि अब तो धर्म का नाम लेते हुये भी डर लगता है। लेकिन श्री झा जी ने सही कहा है कि कुछ धार्मिक लोग भी सेकुलर होते हैं। जिनके लिये राम खुदा ईसा सब एक हैं। ऐसे लोगों की कमी नही। मै उनकी इस बात से सहमत हूँ। धन्यवाद।