Friday, November 19, 2010

2. प्रेमचंद की याद में

लेखन की प्रासंगिकता पर बहस होनी चाहिए लेकिन स्वस्थ। पूर्वाग्रह और पक्षपात की भावना से ग्रसित होकर किसी रचनाकार की रचनाओं का अध्ययन उचित नहीं होता। वैसा आलोचक कभी भी सफल आलोचक नहीं बन सकता। देशकाल की परिस्थितियां रचनाकर के लेखन को प्रासंगिक और अप्रासंगिक करार कर देती हैं। मेरी राय में जो व्यवस्था से लड़ना सिखाता हो, बेहतर जिंदगी के लिए दृष्टि प्रदान करता हो वही लेखन प्रासंगिक है, वही लेखक असली भी है। प्रेमचंद ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने लोगों को अपनी रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ अंग्रेजी राज बल्कि शोषण और दमन को बरकरार बनाये रखनेवाली व्यवस्था से लड़ने की ताकत पैदा की। जो साहित्य हक और अधिकार की बात करता हो वही असली साहित्य है।

प्रख्यात नामवर सिंह ने कहा है कि ‘‘देश की मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों में कोई भी ऐसा रचनाकार नहीं है जो राजसत्ता के समक्ष खतरा या चुनौती पैदा कर सका हो। लेखकों ने आज तक जनमानस को यह ‘‘विजन’’ या ख्वाब नहीं दिया है जिसे लेकर वे जी सकें।

इतना ही नहीं, प्रेमचंद जयंती के उपलक्ष्य में 1 अगस्त 87 को त्रिवेणी सभागार में भाषण देते हुए नामवर सिंह ने कहा था- ‘‘प्रासंगिक लेखक वही है जो अपनी सरकार के सामने चुनौती खड़ी कर दे। हमारे यहां भी बहुत से लेखक ब्रिटिश हुकूमत द्वारा पकड़े गये और फांसी पर भी चढ़े, लेकिन अपने लेखन के कारण नहीं बल्कि राजनीतिक विश्वास एवं विचारधारा के बल पर।’’ उनका यह भी मानना है कि ‘‘ वाल्मीकि के बाद के पूरे साहित्य में क्या तुलसी, क्या निराला, क्या मुक्तिबोध, प्रेमचंद या रवीन्द्रनाथ-कोई भी स्पष्ट रूप से राजसत्ता को चुनौती नहीं दे सके और न राजसत्ता ने ही उनके लेखन को चुनौती माना।’’ मैं अपनी विद्वता का दावा तो नहीं कर सकता लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूं कि प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने न केवल व्यवस्था को चुनौती देने की बात की है बल्कि वर्तमान युग में समस्याओं से घिरी पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प भी प्रस्तुत किया है। हालांकि नामवर सिंह ने यह कहते हुए कि ‘‘जहां तक जनता को विजन या ख्वाब देने का सवाल है, तुलसी, निराला और प्रेमचंद ने झूठा ही सही लेकिन एक विजन दिया जरूर था’’, व्यवस्था को चुनौती देने की बात अंशतः स्वीकार भी कर लेते हैं। फिर नामवर सिंह की बातों में अंतर्विरोध क्यों ?

प्रेमचंद का साहित्य एक सच्चा विकल्प है। प्रेमचंद की रचना वर्तमान शासन प्रणाली के लिए एक चुनौती भी है। दिसंबर 1936 के ‘‘हंस’’ में प्रेमचंद ने लिखा था-‘‘परंतु अब एक नयी सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूंजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है...

...इस समाज व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया के किसी सभ्यतम कहानेवाली जाति को भी सुलभ नहीं।...हां, महाजनी सभ्यता और उसके गुरगे अपनी शक्ति भर उसका विरोध करें, उसके बारे में भ्रमजनक बातों का प्रचार करेंगे, जनसाधारण को बहकावेंगे, उसकी आंखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है उसकी विजय होगी ही।

राजू रंजन प्रसाद

शास्त्रीनगर, पटना-23।

प्रकाशन: जनशक्ति , 23 अप्रैल १९८८.

Friday, November 12, 2010

मेरे प्रकाशित पत्र -1. धर्म, संप्रदाय और संप्रदायवाद

वर्तमान समय में धर्म हमारे लिए एक गंभीर खतरा है। खासकर पूंजीवादी विद्वानों द्वारा धर्म के बारे में इतना ‘‘मिथ’’ फैलाया गया है कि जनता को इसका असली चेहरा नजर ही नहीं आता। यही कारण है कि लाख विरोध करनेवाले तथा अपने को ‘‘सेकुलर’’ कहनेवाले लोग भी धार्मिक संस्कारों से मुक्त नहीं हैं। ऐसे में जब धर्म को लोकहित से जोड़ा जा रहा हो, बहस जरूरी हो जाती है।

धर्म को माननेवाले लोग एक से एक सुन्दर उदाहरण इसके पक्ष में प्रस्तुत करते हैं। वे धर्म का रिश्ता दैवयोग से जोड़ते हैं। धार्मिक पंडितों के अनुसार धर्म का संबंध पवित्रता से है। उनलोगों का यह मानना है कि धर्म हमें सदाचार सिखलाता है, गलत कामों से दूर रहने का उपदेश देता है। धर्म हमें सत्य की रक्षा के लिए जान देने को कहता है-ऐसे हजारों तर्क हमें आस्तिकों की तरफ से सुनने को मिलते हैं। ऐसे में कभी-कभी यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि धर्म की इतनी सारी अच्छाइयों के बावजूद उसका विरोध क्यों ?

मार्क्सवाद धर्म का विरोध करता है क्योंकि वह इसे शोषण का एक प्रबल औजार मानता है। मार्क्स ने लिखा था कि धर्म का निर्माण मनुष्य करता है, मनुष्य का निर्माण धर्म नहीं करता। धर्म मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण करना बताता है। इतिहास इस बात का गवाह है कि धर्म के नाम पर भावुक जनता का काफी लंबे अर्से तक शोषण किया गया है।

जाहिर है ऐसे में धर्म जनता के लिए घातक साबित होने लगता है। एंगेल्स ने कहा था कि धर्म सामाजिक चेतना का एक रूप है। इस संदर्भ में यह कहना गलत न होगा कि धर्म सामाजिक चेतना का एकमात्र ऐसा रूप है जो परिवेशी विश्व को विकृत तथा काल्पनिक ढंग से प्रतिबिंबित करता है। मार्क्स ने कहा था कि ‘‘धर्म मानव के सारतत्व को अजीबोगरीब वास्तविकता में बदल देता है।’’

हाल ही में जनशक्ति में भोगेन्द्र झा का लेख प्रकाशित हुआ है-‘‘धर्म, संप्रदाय और सम्प्रदायवाद।’’ इस लेख में धर्म को लोकहित में साबित किया गया है। श्री झा का यह मानना कि संसार से बेकारी, अशिक्षा और गरीबी को मिटाना सबका धर्म है, समस्त मानवजाति की भलाई हर व्यक्ति का धर्म है, धर्म के गंदे और घिनौने चेहरे पर पर्दा डाल देता है। धर्म की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत किये जाने पर किसी भी सचेतन प्राणी (मनुष्य) को यह सवाल करने का हक बन जाता है कि धर्म अगर मानवता की शिक्षा देता है, गरीबी मिटाता है तो विश्व के अधिकतर लोग धार्मिक हैं फिर गरीबी और अशिक्षा बढ़ती क्यों जा रही है ? धर्म कहीं अधर्म तो नहीं सिखाता ?

श्री झा ने यह दिखाने की कोशिश की है कि धर्म विशेष ने गरीबी और असमानता दूर करने का प्रयास किया है। आपने इस्लाम धर्म को मानवता का प्रचारक माना है। इस्लाम में आपने लोकहित का भी दर्शन किया। मैं प्रश्न करना चाहूंगा कि क्या इस्लाम असमानता को दूर कर सकता है ? इतिहास साक्षी है कि अब तक लाख प्रयास के बावजूद धर्म गरीबी को दूर नहीं कर सका। फिर इस्लाम को मसावात (बराबरी) का प्रचारक कैसे माना जा सकता है ? इतिहास इस बात का भी गवाह है कि भारत में नारियों का सबसे ज्यादा शोषण मध्य युग में हुआ है। ऐसे में धर्म को कैसे माना जाये कि यह लोकहितवादी है।

ईसाई धर्म को आपने ज्यादा उदार दिखाया है। ईसाई धर्म का यह उपदेश कि गरीब भगवान के ज्यादा करीब होते है, ईसा मसीह ने आध्यात्मिक दर्शन देकर जनता को धर्म के जाल में उलझा देने की कोशिश की। ऐसे करके उन्होंने अधिकार की लड़ाई से वंचित कर दिया। जो धर्म हमें अधिकार की लड़ाई से विमुख कर दे वह लोकहितवादी कैसा ?

श्री झा की राय में धार्मिक लोग भी ‘‘सेकुलर’’ होते हैं। लेकिन यह सही नहीं जान पड़ता। दरअसल ‘‘धर्म अफीम है।’’ जो व्यक्ति धार्मिक है उसमें धर्म विशेष के प्रति पूर्वागह और पक्षपात की भावना होगी ही। यही धार्मिक पूर्वाग्रह और पक्षपात की भावना धर्म को लोकहित से दूर ले जाती है जो इसका असली स्वभाव है। जाहिर है, धर्म अफीम है।

राजू रंजन प्रसाद
शास्त्रीनगर, पटना-23।
प्रकाशन: जनशक्ति , 21 अप्रैल 1988।



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dateSat, Nov 13, 2010 at 10:59 AM
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रंजन जी नमस्कार। आपके ब्लाग पर ये कमेन्ट नही हो सका कृ्प्या इसे वहाँ पोस्ट कर दें। धन्यवाद।
कमेन्ट
मेरा मत है कि धर्म केवल एक आस्था है जिस का सहारा ले कर आदमी केवल अपने स्वार्थ पूरे करता है चाहे पूजा पाठ हो या कुछ और । इसे ही वो धर्म मान लेता है। जब साध्य से साधन को ही धर्म माना जाने लगे तो धर्म का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यही हो रहा है। आस्था जीने का एक संबल है और गरीब आदमी के पास इसके सिवा है भी क्या? ये भी सत्य है कि उसकी इस आस्था से ही उसका शोषण होता है\ ये धर्म का विकृ्त रूप है जो हमारी अस्था को या धर्म को हम से दूर ले जाता है। आज के युग मे आदमी के पास जीने के लिये बहुत कुछ है लेकिन तब के युग मे केवल धर्म था। फिर भी अपने वेद पुराण उठा कर देखें तो धर्म क्या है ये पता चलता है जबकि हम लोग धर्म के प्रतीकों को धर्म मानने लगते हैं। धर्म राम नही है, राम के आदर्श हैं जो हमे कहानी के रूप मे बताये गये हैं। धर्म इतना उलझ गया है कि अब तो धर्म का नाम लेते हुये भी डर लगता है। लेकिन श्री झा जी ने सही कहा है कि कुछ धार्मिक लोग भी सेकुलर होते हैं। जिनके लिये राम खुदा ईसा सब एक हैं। ऐसे लोगों की कमी नही। मै उनकी इस बात से सहमत हूँ। धन्यवाद।

Tuesday, September 28, 2010

पत्र संख्या-5

                                                                                                 
पटना, 20. 8. 01.                                                                                                  
आदरणीय मामू                                                                                                     प्रणाम।                                                                                                                    

पटना में आपसे दुबारा न मिल सका इस बात का अगली मुलाकात तक दुःख बना रहेगा। अशोक से मालूम हुआ कि दिल्ली में भी आप मेरी कविताओं को याद कर रहे थे। मेरे लिए यह संतोष से ज्यादा गर्व की बात है। उसके आगे भी मैंने कुछ कविताएं लिखी हैं-एक छोटी और एक अपेक्षाकृत बड़ी।

लोक दायरा आपको कैसी लगी इस बारे में अवश्य पत्र लिखेंगे। आपके पत्र को छापकर हमलोग सम्मानित महसूस करेंगे। कुछ अच्छी जगहों पर इसकी चर्चा हो तो बेहतर हालांकि मुझे खुब मालूम है कि इसके लिए अलग से आपको बताने या कहने की जरूरत नहीं। यह तो आपकी आदत में शामिल है।

हमलोग एक पृष्ठ समीक्षा के लिए देना चाह रहे हैं। हालांकि दूसरे अंक में कुछ ज्यादा गद्य शामिल कर लिया गया है।

समीक्षा के लिए सबसे उपयुक्त हमलोगों को आप ही लगे। आप सबसे ताजा पुस्तकों के संपर्क में रहते हैं और साथ ही किसी विषय पर एक स्पष्ट और वैज्ञानिक राय होती है। इसलिए बीच-बीच में कुछ भेजने की कृपा करेंगे। राधेश्याम मंगोलपुरी का पता भेज देंगे ताकि मैं उन्हें प्रति भेज सकूं। सही चीजें सही आदमी के पास होनी चाहिएं। नवल जी और अरुण कमल की राय ठीक है। अगला अंक भी शीघ्र ही आनेवाला है। आप जल्द ही उसे देख सकेंगे। मामी को मेरा प्रणाम कहेंगे। प्रतीक्षा में।
राजू रंजन प्रसाद

पत्र संख्या-4

पटना, 20. 8. 01.
आदरणीय व्यथित जी
प्रणाम।
आपको जानकर खुशी होगी कि कुछ लोगों को इकट्ठा कर मैंने ‘लोक दायरा’ नाम से त्रैमासिक (अघोषित रूप से) पत्रिका निकालनी शुरू की है। पिछले माह मामू (रामसुजान अमर) पटना आये थे। उन्हें लोक दायरा  की कुछ प्रतियां देने के साथ ही मैंने अपनी नई-पुरानी तमाम कविताएं सुना दी। उन्होंने भी उसे काफी धैर्य और गंभीरता के साथ एकल और अनौपचारिक काव्य-पाठ का भरपूर आनंद लिया। उनकी टिप्पणी थी कि मेरे गद्य से कविताएं कहीं बेहतर हैं। हालांकि यह सुनकर मैं बहुत प्रसन्न नहीं हुआ क्योंकि मैं अपने को मूलतः गद्य के लिए ही बना हुआ आदमी मानता हूं। अशोक हरियाणा गए  थे साक्षात्कार के क्रम में। लौटने के क्रम में वे  मामू से भी मिले । वे काफी खुश होते हुए बता रहे थे कि इस बार की पटना की उनकी यही उपलब्धि रही कि वे एक कवि को ढूंढ़ निकाले। ऐसा कहना उनकी महानता है। ऐसा कहते हुए मैं आत्म मुग्ध नहीं हूं बल्कि अपनी कविता के रिकॉग्निशन को लेकर थोड़ा उत्साहित  हूं। मुझे लगा कि कविता में मेरी अभिव्यक्ति हो जा रही है-इसी का संतोष है। कुमार मुकुल के संग्रह की समीक्षा के बारे में आपने लिखा था कि ‘बहुमत’ या विकल्प  के किसी अंक में आ जाएगा। अभी स्थिति क्या है लिखेंगे। आपकी अवांछित व्यस्तता जानकर दुःख होता है। लेकिन बहुत संजीदगी से हल ढूंढ़ निकालने की जरूरत है। एक अत्यंत ईमानदार आदमी को हिन्दी खोना नहीं चाहेगी। खासकर मैं, जो हॉस्टल (पटना) के दिनों से साक्षी रहा हूं, बहुत साधारण तरीके से नहीं खो सकता क्योंकि मुझे पता नहीं क्यों हमेशा एक ईमानदार आदमी की तलाश रही है चाहे वह साहित्य या संस्कृति का ही क्षेत्र क्यों न रहा हो। लोक दायरा  की प्रति शीघ्र भेज रहा हूं।
आपका
राजू

Monday, September 27, 2010

पत्र संख्या-3

पटना, 14. 9. 96।

प्रिय अमरेन्दु जी
आपका पत्र पाकर मैं कृतज्ञ हुआ इसलिए साधुवाद भेज रहा हूं। आप क्षुद्र और कूपमंडूक हैं, मैं नहीं जानता। अज्ञान अब भी प्रबल है इसका साक्षी आपका खत, अब भी मेरे पास संजोकर रखा पड़ा है। आपके लिए ‘अज्ञानता ही संबल है’। मेरी जानकारी में अज्ञानता कोई शब्द नहीं, शब्द है अज्ञान और यह किसी का संबल नहीं। आगे आपकी मर्जी। वैसे मेरे पास कोई शब्दकोश नहीं है। आप मुझे भी बता देंगे, मेरा हिन्दी ज्ञान समृद्ध ही होगा।

बहुतों को आपका पत्र पसंद आया। पहली नजर में हमें भी जंचा था, बाद में लगा कि निरा शब्दजाल है जो अर्थ खो चुका है आपके अस्तित्व की तरह जो सिर्फ जिद में खड़ा है। मुझे अब वे पसंद नहीं आते जो शब्द को पत्थर की तरह दूसरों को आहत करने के लिए फेंकते हैं। पत्थर फेंककर आम तोड़ने की उमर तो रही नहीं, अभ्यास भी छूट गया।

खैर शब्दों को अपनी राह जाने दें, कर्म को पकड़ बैठें।

राजू रंजन प्रसाद

Saturday, September 25, 2010

पत्र संख्या-2


पत्र संख्या-2
पटना, 20. 8. 01।
प्रिय अमरेन्दु जी
नमस्ते।
यहां सब ठीक-ठाक चल रहा है। लोक दायरा का प्रवेशांक आपकी कविता के साथ जून में आ चुका है। मैंने कहा भी था कि आप कुछ कविताएं अगलें अंक के लिए भेज दें। लेकिन आपने ऐसा न किया। शायद निमंत्रण-पत्र का इंतजार रहा हो अपने प्रिय कवि अरुण कमल की तरह। बात यह है कि ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका का युवा विशेषांक आ रहा है जिसके लिए मैं और मुकुल जी उनसे साक्षात्कार लेने गये थे। बोले कि मुझे तो लिखित पत्र चाहिए। अलबत्ता, लोक दायरा की प्रति उन्होंने पैसे देकर खरीदी। नवल जी को प्रति मैंने सम्मान के बतौर दी। उन्होंने भी उधार न रखा-‘जनपद’ की एक-एक प्रति और अपने द्वारा एक संपादित पुस्तक भी दी। कुछ दिन पहले मैंने उन्हें एक पत्र लिखा था,  जवाब बड़ा ही संतुलित दिया। लगता है मन निर्मल होता जा रहा है। घंटों बातचीत हुई। आपके बारे में पूछ रहे थे। उनकी इच्छा है कि आप उन्हें पत्र लिखें। ऐसा वे कह रहे थे। इधर मैंने कई नई कविताएं लिखी हैं। ‘युद्धरत आम आदमी’ में मेरी भी कविताएं होंगी। आप अपनी कुछ कविताएं भेज सकें तो कृपा होगी। लोक दायरा की प्रति बुक पोस्ट से भेज रहा हूं। मिलने पर सुझाव एवं शिकायत अवश्य लिखेंगे। दूसरा अंक शीघ्र ही आ रहा है। प्रतीक्षा में।

धन्यवाद
राजू रंजन प्रसाद

Thursday, September 23, 2010

मेरे पत्र जो छोड़े नहीं गये -------पत्र संख्या-1

पटना, 24.5.।                                                                                                      
अग्रज मुकुल जी                                                                                                          नमस्ते।                                                                                                              

आपके दो अलग-अलग पत्र मिले। विस्तृत जानकारी मिली। कल सोनू को टाटा के लिए स्टेशन छोड़ आया था। तत्पश्चात् अचानक पीठ में जोरों का दर्द महसूस करने लगा। आज कहीं जाकर थोड़ा बेहतर महसूस किय। आपके जाने के ठीक बाद नवल जी को मैंने किताब लौटा दी थी। उन्होंने अपना डेरा बदल लिया है। पास ही में है। फोन नं. वही पुरानावाला रहेगा। आपके कहे अनुसार गोपेश्वर जी से भी मुलाकात की। थोड़े 'गंभीर' हो चले हैं। डा. विनय कुमार स्वस्थ हैं। मनीष अपने तमाम लक्षणों के साथ चंगा है। लोक दायरा  के लिए आवश्यक तैयारी हो चुकी है। अंक बेहतर हो सकेगा। मणि जी अपना लेख नहीं दे सके हैं। रविवार को दे डालने का निश्चय किया है। मणि जी तक आपका प्रणाम मैंने पहुंचा दिया। काफी खुश हुए। पी-एच.डी का मेरा काम तेजी से आगे बढ़ रहा है। कुमार किशोर से मिलकर आपके ‘न्यूजब्रेक’ वाले पैसे की पूछताछ करूंगा। आर.पी.एस. स्कूल में मैंने इन्टरव्यू दिया था। संभव है, वहीं चला जाऊं। छुट्टी के दिन वहां ज्यादा हैं। अपने काम के लिए अवसर कुछ ज्यादा मिल सकेगा। शिवदयाल जी से फोन करके ‘ज्ञान-विज्ञान’ में आपकी कविता के बारे में जानकारी ले लूंगा। ‘हंस’ में अभी कविता प्रकाशित नहीं हुई है। ‘इस बार’  के बारे में भी कोई विशेष जानकारी नहीं है। मधुकर जी से मिलना पड़ेगा। अलबत्ता सहमत  के ताजा (जनवरी-मार्च) अंक में इतिहास वाला लेख जिसे आपने न्यूजब्रेक  में छापा था, आ चुका है। एक भी शब्द काटा नहीं गया है। नवल जी के अनुसार पटना अब अरुण कमल के लिए खाली पड़ा है। असंदिग्ध सफलता हाथ लगेगी। यहां लालू की बेटी की शादी की चर्चा हिन्दी-अंग्रेजी अखबारों का मुख्य विषय बन चुकी है। लोक दायरा-4 छपते ही भेजूंगा। इस अंक को कैफी आजमी को समर्पित करने की योजना है। ‘युद्धरत आम आदमी’ का प्रतीक्षित अंक उपलब्ध नहीं हो सका है। हाथ लगते ही सूचित करूंगा। बाकी सब मजे में हैं। अजय-श्रीकांत से संपर्क कायम है। आज पत्नी ने टाटा फोन किया था। सब कुशल हैं। पिताजी इधर घर गये थे। सब ठीक-ठाक है। जावेद अख्तर को दो अंक भिजवा दिया है। चौथे अंक के साथ मिलूंगा। उन्हें भी आजीवन सदस्य बनाने की योजना है। एक सदस्य की और बढ़त हुई है। मन लगाकर/मारकर काम करेंगे। विशेष अगले पत्र में.                                                                                                       
राजू रंजन प्रसाद

Wednesday, September 22, 2010

पत्र संख्या-38

भागलपुर: 25 मार्च 2010।

चि. राजू जी,
सप्रेमाशीष,
आपका भेजा मूल्यवान उपहार ‘The Past and Prejudice’ मिला। बहुत ही रोचक और तथ्यपूर्ण बातों की जानकारी हुई। जन्मदिन के उपलक्ष्य पर भेजे उपहार के लिए कोटिशः धन्यवाद।
आपका
बाबूजी

Sunday, September 19, 2010

पत्र संख्या-37

जी डी 44 साल्टलेक,
कोलकाता, 30.07.2004।

आदरणीय राजू रंजन प्रसाद जी!

समकालीन कविता-
वर्ष 1-अंक 3 के पन्ने-
पंक्तियां आपकी-
वैसी भी होती है एक शाम
जब आंगन में पड़ा
मिट्टि (मिट्टी) का चूल्हा उदास होता है
और एक शाम आती है
वीरान गांवों में
आतंक और भय की चुप्पी के साथ
ख़ूबसूरत पंक्तियां-
खू़बसूरत कविता-
काव्यम् परिवार की तथा मेरी बधाई-

आशा है आप सानंद हैं.
आपका
प्रभात पाण्डेय 

Sunday, September 12, 2010

पत्र संख्या-36

केलंग, 20. 8. 2003.                                                                                                        
प्रिय श्री राजू रंजन जी,                                                                                                 
आपका कार्ड मिला। पत्रिका नहीं मिली। कोई भी पुरानी प्रति अवश्य भेजें। मालूम पड़ेगा, उधर लोग क्या लिख रहे हैं। ‘कथादेश’ वाले शायद कविताएं छापें। मैं फिलहाल कविताओं के अलावा कुछ भी नहीं लिख रहा। और खास कुछ पढ़ भी नहीं रहा। पीछे एक किताब शुरू की थी हिटलर की आत्मकथा ‘‘Mein Kampf ! मेरे छोटे से दिमाग के किसी खाने में फिट ही नहीं बैठते महाशय के विचार। किताब लाईब्रेरी की न होती तो शायद जला ही डालता। लेकिन कभी न कभी अवश्य पढूंगा। अभी शायद मुझमें परिपक्वता नहीं आई है। विद्यार्थी जीवन में भारतीय इतिहास में डूबा रहा। बाद में अस्तित्त्ववाद को पकड़ने की कोशिश की। नाकाम रहा। मुक्तिबोध की कविताओं ने मुझे मार्क्सवाद की ओर खींचा। वही ढाक के तीन पात। पूरी युवावस्था मैं वैचारिक उलझनों में पड़ा रहा। अन्त में रजनीश ने काफी गुत्थियां सुलझाईं। 90 से 95 तक रजनीश के अलावा और कुछ नहीं पढ़ा। फिर नौकरी मिली तो काम और कविता। पढ़ने के लिए वक्त नहीं है। वैसे रजनीश की तरफ खिंचने का मुख्य कारण उनकी तीखी व्यंग्यात्मकता तथा ‘‘काव्यात्मकता अभिव्यक्ति’’ रहा। रजनीश के भीतर मैंने संवेदनाओं का सघन पुंज पाया जो बहुत ही संतुलन के साथ उनके प्रवचनों में पिघल-पिघल कर बह रहा है। मैं ‘हंस’ पत्रिका का नियमित ग्राहक भी हूं। शेष अगली दफा। संपर्क में रहें .                                                                               आपका                                                                                                             
अजेय

Saturday, September 11, 2010

पत्र संख्या-35

केलंग, 25. 06. 2003।
प्रियवर,
भारतेन्दु शिखर  में आपकी कविताएं पढ़ीं। कविता संबंधी आपके विचार भी। जाहिर है प्रभावित होकर पत्र लिख रहा हूं। आप के विचार ‘‘युवा पीढ़ी की कविता के प्रति प्रतिबद्धता’’ को पुष्ट करते हैं। आज की कविता के औचित्य एवं महत्व की वकालत भी करते हैं।

मुझे अफसोस है कि हिन्दी क्षेत्र में कविता संबंध में कुछ अजीबो-गरीब धारणाएं बना ली गई हैं। अच्छे स्थापित साहित्यकार भी गलतफहमी का शिकार हैं। कविता महज ‘‘क्रान्ति का नारा’’ नहीं है उससे परे वह एक संवेदना है जो हममें मानवीयता का पोषण करती है। इस से बढ़कर कविता से कुछ और उम्मीद करना हमारी ज्यादती है। यही मेरी चिन्ता का विषय है।

वस्तुतः कुछ लोग सत्ता और राजनीति की चकाचौंध से प्रभावित होकर कविता के महत्व को नकार रहे हैं। ऐसे दिग्भ्रान्त साहित्यिकों को टोकना बहुत आवश्यक है। और हमारी पीढ़ी को ही यह उत्तरदायित्व निभाना है। आओ, हम गड़रिए बनें। उन भटके हुए पशुओं को सही मार्ग पर रखें। अपनी काठियां ज़रा और कठोर और भारी बनाएं। साहित्य या किसी भी कला को ‘‘सीढ़ी’’ बनने से बचाएं। कुछ कविताएं भेज रहा हूं। प्रतिक्रिया देंगे।
पुनश्च-छापना चाहें तो यथोचित संशोधन/संपादन कर के छाप सकते हैं। कविताएं अप्रकाशित हैं।

आपका
अजेय                                                                                                                   
प्रसार अधिकारी (उद्योग)                                                                                              
जिला उद्योग केन्द्र, केलंग                                                                                          
175132.

Friday, September 10, 2010

पत्र संख्या-34

गुलबीघाट, पटना-6: 24.10. 2000.

प्रिय भाई,
आपका कार्ड पाकर प्रसन्नता हुई, भले उसे एक रुपया जुर्माना देकर डाक से छुड़ाना पड़ा, क्योंकि आपने पंद्रह पैसेवाले कार्ड का उपयोग किया था, जबकि उसका दाम फिलहाल पच्चीस पैसे है। खैर!

‘कसौटी’ आपको पसंद आई, यह मेरे लिए संतोष की बात है। उसके पंद्रह अंक ही मुझे निकालने हैं और हफ्ता दिन पहले उसका पांचवां अंक भी दिल्ली में निकल गया है। आशा है, चार-छः दिनों में वह पटना भी पहुंच जाएगा। चौथे अंक में अशोक वाजपेयी पर मेरी टिप्पणी पर आपको कुछ एतराज है, तो ठीक ही है, क्योंकि मैं अब अगर-मगरवाली भाषा लिखने लगा हूं। कारण यह है कि युवावस्था की विदाई के साथ चीजें अपनी जटिलता में प्रकट होने लगती हैं और काला और सफेद रंग पहले की तरह साफ-साफ आकार दिखाई न पड़कर चितकबरे रूप में दिखलाई पड़ने लगते हैं।

आपने ‘साक्ष्य’ के अंक में मेरा लंबा लेख भी पढ़ा, इससे मुझे आत्मिक आह्लाद हुआ। बचपन में पढ़ाया गया था कि दर्शन, प्राण आदि शब्दों का बहुवचन में प्रयोग होता है, लेकिन यह सही नहीं है। हिंदी में ये शब्द दोनों वचनों में प्रयुक्त होते हैं, जो गलत नहीं है। किशोरीदास वाजपेयी का कहना है कि विसर्ग हिंदी की चीज नहीं, इसलिए ‘छः’ की जगह ‘छह’ लिखना चाहिए, जिससे ‘छहों’ बन सके। इस सुझाव को मान लिया गया, तो ‘छिः’ का क्या करेंगे? डा. कपिलमुनि तिवारी ठीक कहते हैं कि भाषा में कुछ चीजें rational होती हैं और कुछ irrational, जिससे उसमें सर्वत्र एकरूपता नहीं लाई जा सकती। मैं भी पहले ‘छह’ ही लिखता था, पर जानकारी बढ़ने के साथ वाजपेयी जी से पीछा छुड़ाया। ‘सोच’ शब्द कायदे से हिंदी में स्त्रीलिंग ही होना चाहिए, क्योंकि यह ‘सोचना’ क्रियापद से बना संज्ञापद है, जैसे ‘समझना’ से ‘समझ’, लेकिन इसका प्रयोग भी दोनों लिंगों में होता है। दिनकर जी से संबंधित वाक्य में ‘आया’ ही होना चाहिए। लगता है यह प्रूफरीडर का कमाल है। मेरे पास लेख की मूलप्रति कि मिलाकर देख सकूं।
अंत में: मित्र से डर कैसा ?

सधन्यवाद
नवल

Wednesday, September 8, 2010

पत्र संख्या-33

पटना, 24. 3. 2003.

संपादक महोदय,
अंक 5 में प्रकाशित अमरेन्द्र कुमार की कविता वाकई अच्छी है। आदमी के जद्दोजहद, पीड़ा और संवेदना को व्यक्त करती अमरेन्द्र की कविता अंदर तक छू जाती है। परंतु पढ़ने के बाद यह बोध भी हुआ कि आदमी से पीड़ा बड़ी है-क्या ऐसा उचित है ? कविता और कवि दोनों में इससे बाहर निकलने की छटपटाहट होनी चाहिए।

अशोक कुमार
राजेन्द्र नगर, पटना.

Tuesday, September 7, 2010

पत्र संख्या-32

                                                                                            
दिल्ली, 22. 2. 05.
आदरणीय राजू भैया,

आपके लिए अभिवादन जैसी औपचारिकता से बचना चाह रहा था मैं दरअसल। लेकिन मेरा पारम्परिक मन इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है इसलिए मैं आपको एवं भाभी जी को प्रेमाभिवादन करता हूं। यह कार्ड मुकुल जी के पटना जाने से पहले से ही आपके नाम के साथ पड़ा है। हर दिन सोचता हूं कि आपको लिखूं लेकिन समझ में नहीं आता कि आखिर लिखूं तो क्या? अब क्या इस पीड़ा को व्यक्त करने से कि क्यों मणि जी जदयू से चुनाव लड़ गये, बहुत बुरा हुआ क्या कुछ मिलेगा। सच कहता हूं भैया इतनी गहरी पीड़ा पहुंची कि मैं आपको बता नहीं सकता। मणि जी से हमलोगों को बहुत सारी अपेक्षाएं थीं, जो व्यक्ति आर. एस. एस. का व्यक्तिगत बातचीत में इतना विरोधी हो, वह कैसे मौका पाते ही अपनी तमाम अर्जित सदगुणों को क्षणभर में ही ध्वस्त कर देता है। इधर मैं लगातार पुस्तक समीक्षाओं का इंतजार कर रहा हूं। पता नहीं आप कब तक उसे भेजेंगे। चन्द्रमोहन प्रधान का जो इण्टरव्यू आपने लोक दायरा में छापा था उसकी प्रति अगर उनकी तस्वीर के साथ मुझे मिले तो मैं उसे प्रभात खबर में छापूंगा। और हां 04 में लोकदायरा के जितने भी अंक प्रकाशित हुए हैं उसकी एक-एक प्रति मुझे अविलंब मुहैया करायें। मैं ‘आजकल’ के लिए 04 की पत्रिकाओं पर एक लंबा लेख लिख रहा हूं। मनीष भाई कैसे हैं ? यहां मुकुल जी अपने मोर्चे पर डटे हुए हैं। शेष सकुशल
आपका अभिन्न
अरुण
यू. एन. आई अपार्टमेंट, फ्लैट 27, सेक्टर 11 गाजियाबाद,
दिल्ली।

पत्र संख्या-31

अक्तूबर 25’07, दिल्ली

आदरणीय प्रसाद जी
सादर नमस्कार
‘आजकल’ के सितंबर ’07 अंक में प्रकाशित आपकी कविताएं वास्तव में समकालीन विसंगतियों का बड़ा ही मनोहारी चित्रण करती हैं: ‘जहां कोई भी असभ्य राहगीर/चलते-चलते मूत्र-त्याग की इच्छा रखेगा !’ ‘नया साल’ कविता भी मुझे बढ़िया लगी। आपका कवि बहुत समर्थ है और यह सामर्थ्य ‘नया साल’ के सुस्पष्ट बिम्ब-निर्माण में साफ-साफ झलकती भी हैः ‘झुर्रियों की लम्बाई व गहराई’।

आपकी चारों कविताओं ने ऐसा काव्य-फलक खड़ा कर दिया है कि पत्र लिखने से खुद को रोक नहीं सका। बधाइयां ! आशा है, हिंदी साहित्य को इसी प्रकार उत्कृष्ट रचनाओं से समृद्ध बनाते रहेंगे।
आपका
प्रांजल धर

Monday, September 6, 2010

पत्र संख्या-30

संपादक महोदय,
लोक दायरा
राजकमल प्रकाशन से लोक दायरा घर में आई। पटना से पत्रिका प्रकाशित करना एक साहित्यिक जुनून ही है साथ ही मिशन भी। दोनों के लिए सर्वप्रथम शुभकामनाएं। आकार में छोटी, लोक दायरा की स्तरीय पाठ्य सामग्री से यह उम्मीद जगती है कि कल का दायरा शनैः शनैः बढ़ेगा ही। लोक दायरा के तेवर एवं मिशन के अनुरूप यह रचना भेज रही हूं जो आज के लिए प्रासंगिक है तथा समाज के सभी दायरे (सावधान कविता) में आई दरार की ओर लोक दायरा का ध्यान आकृष्ट करती है।

साथ ही डाक टिकट लगा लिफाफा भी संलग्न कर रही हूं ताकि स्वीकृति/अस्वीकृति की सूचना देने में आपको आसानी हो। सूचना अपेक्षित है ताकि मैं अपनी रचना सूचना के यथास्थिति के अनुकूल अन्यत्र भेजने न भेजने के बारे में निश्चित हो सकूं। कृपया प्रकाशन की स्थिति में अवधि का उल्लेख करें ताकि पत्रिका संकलित कर सकूं।
शुभकामनाओं के साथ

पाठिका

Saturday, September 4, 2010

पत्र संख्या-29

आमगोला, मुजफ्रपुर, 8.10.94।

प्रिय भाई,
आपकी सेवा में मैंने आपकी प्रश्नावलि का तो उत्तर भेज दिया था। मिला है कि नहीं, आपने लिखा ही नहीं।
कृपा कर सूचित करें।

विशेष शुभ
सादर आपका
चन्द्रमोहन प्रधान

Friday, September 3, 2010

पत्र संख्या-28

आमगोला, मुजफ्फरपुर, 15. 09. 94।
 
प्रिय भाई
आपको पत्र भेजा था। मिला होगा।
 
आपकी इच्छानुसार आपके प्रश्नों के वे उत्तर भेज रहा हूं। आप इस का यथासंभव असंक्षिप्त उपयोग करेंगे।
अन्य कुछ बात पूछनी हो तो पत्र लिख देंगे। शीघ्र उत्तर दे दूंगा।
 
यह लेख प्राप्ति की सूचना अवश्य ही देंगे।
सस्नेह,                                                                                                           
आपका
चन्द्रमोहन प्रधान

Thursday, September 2, 2010

पत्र संख्या-27

नयी दिल्ली, 28. 8. 2002।

प्रिय राजू,
मैं आज आई. सी. एच. आर. गया तो पता चला कि तुम्हारा चेक 30. 3 को ही भेजा जा चुका है। चेक नं. 557465, तिथि 30.3. 02 है।
अगर तुरंत इसे पता नहीं किया गया तो लैप्स करने का भी दिन नजदीक आ गया है।

यहां आकर पता चला कि न केवल तुम गैरजिम्मेवार हो, बल्कि बहुत बड़ा झूठा भी हो। तुम्हारी कोई चिट्ठी आइसीएचआर में नहीं आई है, सहायक ने मुझे पूरी संचिका दिखा दी।

अब मेंबर सेक्रेटरी के नाम चिट्ठी लिखना होगा, जो शोध-पर्यवेक्षक द्वारा अनुशंसित एवं विभाग द्वारा अग्रसारित होगा। इसके पूर्व कैशियर से मिलकर एक बार पुनः पड़ताल कर लेना होगा।

अशोक

Wednesday, September 1, 2010

पत्र संख्या-26

हैदराबाद, 10.6.02।                                                                                                                                  

प्रिय भाई राजू जी,                                                                                                     
आपका कार्ड मिला। पढ़कर बहुत अच्छा लगा। इतनी सारी सूचनाएं दी आपने एक साथ-पत्र लेखन में आपका जवाब नहीं। कल संपादक से थोड़ी गर्मा-गर्मी हो गई थी, काम छोड़ दिया था पर आज फिर मुझे रोक लिया गया। पटना वाली जंग यहां भी चल रही है और जीत भी हो रही है। हाथदर्द के लिए दवा है-सिन्नाबेरिस 200। यहां किताब नहीं है कोई, जरा योगेन्द्र प्रसाद से पूछ लेंगे कि यह दवा भी मर्करी से ही बनी है न। दवा सप्ताह में दो बार छः गोली लेनी होगी। आप शोधकार्य में भिड़े हैं यह अच्छा है। मनीष अच्छा होगा। टहलना मत छोड़िए वैसे मैं कब फिर साथ देने पहुंच जाउंगा कहा नहीं जा सकता। यहां सैलानी सिंह हैं एक हमारी विचारधारा के। अब पता में उनका नाम देना जरूरी नहीं। मेरा नाम काफी है। तस्लीमा अभी कलकत्ता में हैं कुछ सामग्री उनपर भेजूंगा ‘दायरा’ के लिए। मनोज जी, नलिन जी को नमस्कार। ऑफ लेना शुरू कर दिया है पिछले सप्ताह से। श्रीकांत-अजय को कहिएगा कि जल्दी ही व्यवस्था करें।                                      
 
कुमार मुकुल

Tuesday, August 31, 2010

पत्र संख्या-25

फारिसलेन, आदमपुर, भागलपुर, 12.12.02।

प्रिय चि. राजू जी,
जीभर आशीश
आपके द्वारा भेंटस्वरूप प्रदत्त ‘‘दायरा’’ को आद्योपान्त पढ़ा। किताब द्वारा आज के घिनौने राजनेता की अच्छी बखिया उघाड़ा गया है। तोता की आत्मकहानी भी प्रेरणादायक लगा। सबसे नामवर सिंह पर जो आलेख है उसमें अनोखे खोज की बात बतायी गयी है और अपने को दिग्गज कहलानेवाले साहित्यिक धाकड़ रामविलास शर्मा पर अच्छा चोट किया गया है। मिला जुलाकर आज के समाजिक उत्पीड़न की कविता ‘‘रूपकुंवर’’, ‘कुतिया’, ‘तीन दिनों की रैली’ काफी रोचक लगी। ‘‘बाबा’’ की मायावती पर जो कविता है वही इस अंक की जान है। शायद बाबा की निगाह मृत्यु-शय्या पर रहते भी उस नेत्री की फुहड़पन को बताने में बड़ी मसकत करनी पड़ी होगी।

अंत में आपके उस प्रयास के लिये और नये साहित्य सृजन पर अपने को संलग्न करने के लिये पुनः धन्यवाद देता हूं।
आपका
बाबूजी

Monday, August 30, 2010

पत्र संख्या-24

भागलपुर, 6 जून 02।

प्रिय राजू जी,
आशीश।
आपका भेजा ‘‘दायरा 3’’ अंक मिला। थोड़ा पढ़ा हूं। मुख्य पृष्ठ पर आपका सम्पादकीय पढ़ा। जोशी जी को मुंहतोड  उत्तर दिया गया है। साम्प्रदायिकता का (की) खाल ओढ़ कर देशभक्ति का पाठ भारत की जनता को सिखाना चाहते हैं। दूसरा अंतिम पृष्ठ का ‘‘बुढ़ापा’’ भी पढ़ा। याद आयी अपनी जवानी और आज के हलात की मजबूरी। पार्टी के लिये जवानी में बहुत कुर्बानी थी-और निष्ठा से पार्टी से प्यार था-परन्तु सब बेकार सा लगता है। आपने पार्टी अनुभव की बात लिखने को कहा है-कुछ लिख भेजूंगा। ‘‘अफगानिस्तान’’ भी पढ़ा बड़ा रोचक लगा। औरों को पढ़ूंगा और अनुभव लिखेंगे। अपना प्रयास जारी रखें। नितान्त जरूरत है ऐसी चीजों की।
‘‘बाबूजी’’

Sunday, August 29, 2010

पत्र संख्या-23

हाजीपुर, जहानाबाद, 3. 2. 97।

आदरणीय बाबा,
आपकी बीमारी लंबी खींच रही है, दुख है। स्वास्थ्य लाभ की कामना है। मेरे बारे में जो कुछ आपने लिखा है, उसमें अतिरंजना है कि नहीं मैं नहीं कह सकता। आप ही पर छोड़ता हूं। बहरहाल, खिंचाई में कड़ुवापन का स्वाद तो नहीं मिला, अलबता आपके स्वभाव के प्रतिकूल उसमें खीझ के दर्शन अवश्य हुअे (हुए)। ओह! बाबा वे लोग सचमुच बड़े भाग्यशाली होंगे जो बिना श्रम किये ही रास्ता ढूंढ़ लेते हैं... आप उनके बारे में क्या सोचते होंगे जिसे राह ने बीच में ही भरमाया हो यों कहें कि चकमा देकर हतप्रभ कर दिया हो। कुछ के लिए ‘अधूरापन’ टाल देना आसान होता है, मैं चक्कर में पड़ जाता हूं। रूका रह जाता हूं। त्रिशंकु की तरह। आप में सयानापन है, काबिलियत भी इसलिए नुस्खों की भरमार है। आप कुछ लिख रहे हैं। बड़े मजे की खबर है। जारी रखिए आपसे मुलाकात होगी, कवि के मुख से सुनने का आनंद भी मिलेगा, इसका आश्वासन बार-बार मिलता रहेगा, यह उम्मीद बराबर रहेगी।
आपका
अमरेन्द्र

Saturday, August 28, 2010

पत्र संख्या-22

हाजीपुर, जहानाबाद, 20. 3. 96। 

प्यारे बाबा,

हम क्षुद्र लोग हैं। कूपमंडूक हैं। अज्ञानता ही संबल है। आप शुभेच्छु हैं, मेरे लिए आपकी चिन्ता लाजमी है। आप तत्वदर्शी हैं, त्रिकालदर्शी भी। बाप रे! एक ही डूबकी में मेरा भूत, वर्त्तमान और भविष्य तीनों खोज लाना और उसे पूरे सज-धज के साथ बयान करना साधारण कार्य नहीं है। काबिलेतारीफ है। यह मामूली खत नहीं है, एक पूरा घोषणा-पत्र है। कदम-कदम पर चेतावनी, एक से बढ़कर एक नसीहतें और आखिर में मेरी समाप्ति की भविष्यवाणी। आप भाग्य-विधाता हैं, इससे आपकी शोभा में चार-चांद लगता है। नामवर जी को आग फूंक चुकी है। उनमें आप जैसी अकलियत कहां? आपकी बुद्धि की बारूद और गोलन्दाजी के सामने वे नहीं ठहर सकेंगे। हम जैसे लोग उनके पीछे भागें, यह बड़ा संगीन अपराध है, आप चुप न बैठ सकें, यह उचित है। हम जैसे लोगों से कोई उम्मीद बांधे इस पर भरोसा नहीं करता। हंसी जरूर आती है। ताज्जुब भी होता है। फिर भी एक-आध अक्ल का दुश्मन निकल भी आये तो आप जैसा तेज-तर्रार स्कॉलर उसके भ्रम का निवारण नहीं कर पायेगा, ऐसा सोचना पाप होगा। एक विनती है। आप उसे एक चिट्ठी कम-से-कम पोस्ट तो कर ही सकते हैं। इस तरह मैं बैठे-बिठाये एक बड़े भारी कर्ज से मुक्त हो जाऊंगा।

मैं हमला करने में दक्ष नहीं हूं। विश्वास भी नहीं रखता। भाल-रक्षा तो प्राणीमात्र का धर्म है। आशा है जब-तब इसी तरह कृतार्थ करते रहेंगे, बस...।
आपका
अमरेन्द्र

Friday, August 27, 2010

पत्र संख्या-21

मीठापुर, पटना-1.

सेवा में,
आदरणीय,
संपादक महोदय, लोक दायरा!
मैंने आपकी प्रतिष्ठित पत्रिका देखी, देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई, बहुत ही नई चिजें (चीजों) को आपने इस पत्रिका में स्थान दिया। इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूं। मैं भी थोड़ा बहुत लिख लिया करती हूं। इसलिए मैं सोची की (कि) आपकी पत्रिका में अपनी रचना भेजूंगी। पत्र मिलते ही पत्र लिखने का कृपया कष्ट करेंगे। इसके लिए मैं आपकी आभारी रहूंगी। धन्यवाद सहीत (सहित) आपकी
प्रिति कुमारी
हाउस ऑफ चंद्रकला देवी (रेलवे कार्यरत)
नियर-अर्जुन महतो,
भरतलाल टेन्ट हाउस रोड, ‘मीठापुर’, पटना-1

पत्र संख्या-20

हैदराबाद, 4.5.02।

प्रिय भाई राजू जी,
धीरे-धीरे यहां सब ठीक हो रहा है। आज काम किए सप्ताह भर हो गए। सोमवार को प्रेस कार्ड बन जाएगा। मतलब नौकरी पक्की हुई। पर यहां मन जरा भी नहीं लगता। दूसरे दिन ही लौटने को सोचा था। पैसा 5 के उपर (ऊपर) नहीं दे रहा था पर लगता है अब छः के उपर (ऊपर) देगा। मेरी मांग 8 है। ज्यादा दिन यहां नहीं रहा जा सकता। एक कमरा लिया है 600 में। आगे घर लूंगा तो बेबी को लाने की सोचूंगा। मेरे काम से सभी संतुष्ट हैं यहां। बिहार-यूपी के बहुत लड़के हैं। मेरी ड्यूटी 10 से शाम 7 तक है। संपादकीय पेज और फीचर मिला है देखने को। शुरू में अंग्रेजी अनुवाद पर बहस हो गयी थी संपादक से। खूब भाषण पिलाया था उसे फिर भी रख लिया। लगता है उसे मेरी जरूरत थी। बेबी-सोनू की खबर लेंगे। गट्टू कैसा है? आपलोगों की काफी याद आती है।
कुमार मुकुल

Wednesday, August 25, 2010

पत्र संख्या-19

हैदराबाद, 17.9.02।

प्रिय भाई।
यहां सब ठीक है। आप तो ठीक हैं ही। होमियोपैथी डिग्री छः महीने में मिल जाएगी तो पहले यहीं साथ-साथ क्लिनिक खोल दूंगा। कुछ जम जाएगा तो धीरे-धीरे पटना शिफ्ट करूंगा। बाकी लेखन भी चल रहा है। यों स्टार फीचर में साल भर में काफी विकास हो सकता है। बच्चों के लिए एक पत्रिका निकालने की बात आज कह रहा था। फीचरवाला बोला-आपको संपादक बना देंगे। अगर काम बढ़ता है तो आप भी मन बनाए रखिएगा। कुछ दिन..... बेबी से मेरा मैट्रिक, एम. ए. व होम्योपैथी वाले सर्टीफिकेट का फोटो स्टेट जरूर लाने को कहिएगा। गट्टू को कहिएगा पत्र देने को।

आपका
कुमार मुकुल

Tuesday, August 24, 2010

पत्र संख्या-18


हैदराबाद, 19.6.02।
 
प्रिय भाई राजू जी,
नमस्कार।
आपका दूसरा कार्ड मिला। मैंने इस बीच तस्लीमा का साक्षात्कार भेजा जो मिल गया होगा। अंक (लोक दायरा का) दे दिया यह अच्छा किया। जुलाई में मैं या मदन जी आएंगे पटना तो अंक दे देंगे। मदन जी जाएंगे तो आप उनसे भी भेज देंगे। यहां सब चल रहा है। वहां आप चंद्रेश्वर विद्यार्थी जी को एक बार फोन पर मेरा नमस्कार कहेंगे और पता करेंगे कि वे किसी अखबार पत्रिका को ज्वायन किये या नहीं। उनका नंबर है-293979-उनसे बोरिंग रोड जाने पर संभव हो तो मिलिएगा भी। कुमार किशोर को तो आप जानते ही हैं उन्हें भी फोन करेंगे और उनका डेरे का पता लेकर मुझे भेजेंगे। उनका नंबर है-682076। लोक दायरा के बिक्री में कुमार किशोर जी की मदद भी ले सकते हैं। बेबी 26 जून तक आ जाएगी पटना। सोनू का ख्याल रखिएगा। गट्टू का क्या हाल है? मैडम के हाथदर्द की दवा मिली या नहीं? गट्टू के नानाजी को नमस्कार कहेंगे।
आपका
कुमार मुकुल

पत्र संख्या-17

हैदराबाद, 29.8.02।

प्रिय भाई राजू जी,
आशा है सानंद होंगे। मैं भी ठीक हूं। दो कमरे का एक मकान लिया है, भीड़-भाड़ से थोड़ा बाहर प्रकृति की गोद में 1500 में। परिवार को जल्द ही बुलाना होगा-देखें कबतक कैसे होता है। अनुवाद का भी कुछ काम मिलनेवाला है, अलग से। त्रिवेन्द्रम होमियो मिशन को कार्ड डाला था जवाब आ गया है। वहां का भी कोर्स साल भर में कर लूंगा। हमारे फीचर को आज ही हिन्दी के सबसे बड़े अखबार ‘दैनिक भास्कर’ की ओर से साल भर का आर्डर मिला है। आफिस में सब कुछ भला सा है। जो चाहता हूं वही लिखता हूं। पर नियमित। इस तरह बच्चों व किशोरों के लिए कुछ किताबें लिख सकूंगा यहां रहकर। एक कविता मोदी के खिलाफ ‘हंस’ को भेजी है। गट्टू कैसा है? मोती और मैडम? मोती की क्या योजना है?

कुमार मुकुल

Sunday, August 22, 2010

पत्र संख्या-16

हैदराबाद, 26.12.02।
 
प्रिय भाई राजू जी,
नमस्कार।
यहां सब पूर्ववत चल रहा है। कंपनी थोड़ी लड़खड़ा रही है। पेमेन्ट किश्तों में और देर से हो रहा है। यूं आश्वस्त किया जा रहा है कि यह संकट एक-दो माह का है। जो भी हो आप क्या कर रहे हैं? ‘लोक दायरा’ क्या प्रेस में गया ? मोती को पीछे लिखा होमियोपैथी संस्थान का पता दे देंगे। यह नया पता है। और यहां सब ठीक है। बेबी, बच्चे ठीक हैं। गट्टू कैसा है ? मैडम की दवा तो आप ला दिए होंगे-सेनेशिया-क्यू। पत्र देंगे। अन्य साहित्यिक गतिविधि लिखेंगे। अपना भी।
कुमार मुकुल

Saturday, August 21, 2010

पत्र संख्या-15

पटना-23, तिथि अज्ञात।

प्रिय संपादक जी,
लोक दायरा-2 में मेरी दो कविताऐं (कविताएं) छपी (छपीं), सहृदय धन्यवाद। लोक दायरा 1 और 2 दोनों पढ़ा। कम पृष्ठों की अच्छी पत्रिका पठनिऐं (पठनीय) एवं संग्रहनिऐं (संग्रहनीय) है।
पत्रिका में कुछ नवागन्तुओं (नवागन्तुकों) की कविताऐं (कविताएं) छापी गई (गईं)। जिसमें मुझे भी स्थान मिला। आशा है, लोक दायरा अनियतकालीन पत्रक नियतकालीन पत्रिका बनकर आती (आता) रहे। धन्यवाद!
आपका
मणि भूषण

Friday, August 20, 2010

पत्र संख्या-14

हैदराबाद, 8.4.04

प्रिय भाई राजू जी,
नमस्कार।
लोक दायरा की प्रतियां मिलीं। अंक अच्छा बन पड़ा है। अमरेन्द्र की कविताएं लाजवाब हैं। समीक्षक की जगह अपना नाम देना चाहिए था। अमरेन्द्र का नाम बोल्ड होना चाहिए था। मनीष की कविता भी अच्छी लगी। विद्यानंद जी के अनुवाद देते रहेंगे। रामसुजान जी से कुछ अलग मुद्दों पर लगातार लिखवाएं। यहां सब करीब ठीक है। ‘हंस’ के मई अंक में मेरी नयी कविताएं आ जाएंगी। मणि जी क्या कर रहे हं ? अजय-श्रीकांत जी से भेंट होती है क्या ? विजय ठाकुर जी से ले इतिहास पर छोटी टिप्पणियां छापें। सियाराम जी की कोई खबर है या नहीं ? और पटना का साहित्यिक मिजाज कैसा है ? स्कूल की पत्रिका का कोई अंक निकला या नहीं ? साथ का कार्ड घर पहुंचवा देंगे। बेबी स्कूल जाने लगी है। मोती क्या कर रहे हैं ? गट्टू को पत्र लिखने क्यों नहीं कहते ? आगे के अंक के लिए यहां की पत्रकारिता पर एक टिप्पणी लिखूंगा। विनय कुमार की पत्रिका के लिए वेणु गोपाल पर रोचक टिप्पणी लिख दी है मैंने।
शेष पत्र दें।
-मुकुल

Thursday, August 19, 2010

पत्र संख्या-13

हैदराबाद, 24. 3. 03।
प्रिय भाई राजू जी,

नमस्कार। आपका कार्ड मिला। यहां सब ठीक है। आज बेबी ने थोड़ी दूर पर कोई स्कूल ज्वायन किया है। छः मिलेंगे जिसमें जाने-आने का भाड़ा दो ले लगेगा पर इस तरह वह व्यस्त रहेगी और कुछ सीखेगी भी जैसाकि पटना में हुआ था। अब तक यहां सब वही संभाल रही थी। बीच में एक जटिल दुर्घटना हुई थी। मैं तो सब देखता-चेतता रहता हूं-पर वह तभी सीखती है जब उसे खुद उसका अनुभव होता है। नही तो पहले यूं ही आंटी लोग के यहां घूमने-खाने में समय बर्बाद करती थी और पैसा भी। हंस में कविताएं भेजी हैं-मांग की गई थी और ‘लोक दायरा’ निकला या नहीं? बेबी अपनी मैडम (मेरी पत्नी) को हमेशा याद करती है। मैंने कहा वहीं जाओ, साथ पढ़ाना और बच्चों को देखना-मैं भी लौटने की व्यवस्था करूंगा। यूं ही....होम्यो की अंतिम परीक्षा दे दी है...। मनीष क्या लिख रहा है और आपका शोध पूरा हुआ या नहीं। अतीत खींचता है। बराबर...पर...

कुमार मुकुल

पत्र संख्या-12

दिल्ली, 21.10. 2003।

भाई राजूरंजन जी,
नमस्कार,                                                                                                          
‘हंस’ अक्तू. ‘03 अंक में प्रकाशित आपकी रचना का प्रतीक पारिश्रमिक ‘हंस’ की वार्षिक सदस्यता में समायोजित किया जा रहा है। नवंबर ‘03 से अक्तू. ‘04 के लिए आपकी सदस्यता दर्ज की जा रही है। नवंबर 03 अंक 5.11.03 को भेजा जाना है-प्रतीक्षा करें। 
सादर
वीना उनियाल

Tuesday, August 17, 2010

पत्र संख्या-11

आमगोला, मुजफ्फरपुर, 2002
 
प्रिय राजू जी,
सादर नमस्कार, 
आपका कार्ड तो समय पर मिला था, किंतु व्यस्तता बहुत थी, उत्तर देना भूलता रहा! खैर,
आपने एक चुनौती को स्वीकार किया है। मार्ग अवश्य कंटकाकीर्ण है, तथापि आप जैसे ऊर्जावान व्यक्ति ही ऐसी चुनौतियाँ स्वीकार कर, उन्हें हल भी करते हैं। यह मुझे विश्वास है आपको सफलता अवश्य मिलेगी। ‘‘दायरा’’ ने जिस प्रकार प्रारंभिक लघु रूप में ही अपना महत्त्व स्थापित करके ध्यानाकर्षण किया है, वह श्लाघ्नीय है।
 
मेरी प्राचीन कल्पना है, कि ऐसी कोई स्पष्टवक्ता पत्रिका हो, जो ‘‘पाठक मंच’’ का कार्य भी करे। ध्यातव्य है, कि साहित्यिकता को केन्द्र बनाकर छपनेवाली पत्रिकाएँ अपनी प्रशस्तियाँ ही अधिक छाप रही हैं, आलोचना तथा सुझावों के प्रति वे सामूहिक मौन रखती हैं। ‘‘दायरे’’ (दायरा) छोटी, प्रारंभिक पत्रिका है, तथापि ऐसी अनेक पत्रिकाएँ हैं जो अच्छी तरह से स्थापित हैं। बहुत विज्ञापन बटोरती भी हैं, तथा कागज, छपाई, व्यवस्था, डाक आदि व्ययों में कोताही नहीं करतीं, किंतु मसिजीवी लेखकों को ही सौ-पचास का पारिश्रमिक तक नहीं देतीं! अच्छे लेखक अपनी रचनाओं से उन का मान बढ़ाते हैं, किंतु वे अपनी उत्तम रचनाएँ रु. देनेवाली पत्रिकाओं को अधिक देने पर यों ही मजबूर हो जाते हैं! इसपर ये पत्रिकाएँ मौन हैं। यह प्रश्न तो पहले कुछ लोगों ने सामने रखा था, किंतु पत्रिकाएँ मौन रहीं और मामला वहीं ठप रह गया! आपका क्या विचार है ?
 
सधन्यवाद
सादर आपका
चन्द्रमोहन प्रधान

पत्र संख्या-10

आमगोला, मुजफ्फरपुर, 30.8. 2002।

प्रिय भाई राजू रंजन जी,

सादर नमस्कार।
 आपकी प्रेषित पत्रिका ‘‘दायरा’’-दो प्रतियां-मिलीं, धन्यवाद। पत्र में विलंब यों हुआ है कि अपनी शोध पुस्तक में बहुत व्यस्त रहा था। खैर।
पत्रिका बहुत छोटी, किंतु गागर में सागर जैसी समृद्ध है। कविता ने काफी जगहें ले ली हैं। डा. नामवर सिंह के प्रति मेरे उक्त पुराने कथन को आपने छापा है, सो अच्छा है, किंतु प्रूफ की बड़ी भूलें हैं, खासकर मेरी कहानियों के नामों में। कृपया आगामी अंक में यह ठीक कर देंगे-भूल सुधार। ‘कतार’ में कहानी ‘‘आदिम राग’’ है, ‘धर्मयुग’ की ‘‘रिश्ते’’ तो सही है, ‘आवर्त’ की कथा है ‘‘प्यास’’। कृपया ठीक कर छापेंगे नाम।

पत्रिका का कलेवर छोटा है, तथापि आप चाहेंगे तो कुछ अवश्य इसके योग्य भेजूँगा।
विशेष शुभ है। इधर आएँ तो मिलेंगे।
पुनश्चः ‘‘औपनिवेशिक’’ लेखन का तात्पर्य स्पष्ट नहीं समझा!
चन्द्रमोहन प्रधान

Sunday, August 15, 2010

पत्र संख्या-9

नयी दिल्ली, 5.5.98।
 
प्रिय राजू भाई,
मंगल-कामना!  
आपका कार्ड मिला। आपकी कुशल जानकर खुशी हुई। बीच-बीच में अशोक से आपका हालचाल मालूम होता रहता है। सीधे पत्र पाकर बहुत अच्छा लगा।
 
मेरी लिखी चीजों पर आपकी निगाह जाती है यह मेरे लिए आश्वस्तिदायक है। अगर जरूरी लगे तो कभी-कभार अपने नजरिए से मुझे परिचित करायेंगे ताकि अपनी चीजों को ‘सोधने’ में मदद मिल सके।
 
आपके लेख इधर और कहीं आए हों तो सूचित करेंगे। ‘विकल्प’ वाला लेख मैं पढ़ चुका हूँ। इसके अलावे ‘नालंदा’ पर लेख भी पसंद आया। सबसे बड़ी बात है कि एक अलग किस्म की भाषा एवं सोच से आपके यहाँ सामना है। पाठक बचकर निकल नहीं सकता। इस ताकत को और सार्थक ऊँचाई दें।
 
‘बाबा’ को लेकर दिल्ली में भी हल्की उत्तेजना है। कृपया आप तनिक विस्तार से उनके स्वास्थ्य एवं उनसे जुड़े मुद्दे के बारे में लिखें। क्या हमारे लिए कुछ हो सकता है ? उनके बेटों का रवैया क्या है ? उनकी आर्थिक स्थिति क्या है ? शेष ठीक है।
आपका
रामसुजान अमर

Saturday, August 14, 2010

पत्र संख्या-8


सिकरहुला, कारिया, बेगूसराय, 30.10.03।
 
प्रिय महोदय,
 
आपका आलेख अक्तूबर ‘03 हंस
इतिहास और अतीत के बारे में, अकादमिक तौर पर शायद पहली दफा और वह भी, बिल्कुल सहज तरीके से लिखा ऐसा आलेख पढ़कर जी खुश हो गया। आपसे यही उम्मीद थी। (चूंकि पटना के बौद्धिक वर्ग का एक अस्थायी सदस्य होने के नाते, अपनापन तो लगता ही है)! ज्यादा बावेला तब मचता, जब आपने बौद्धिक माफियाओं की उन स्थापनाओं को सप्रमाण, सोदाहरण ध्वस्त किया होता जिन पर उन्होंने अपने वैचारिक कंगूरे खड़े कर रखे हैं। एक कोई चंद्रभान प्रसाद (भाया-सहारा दैनिक) हैं, वह अंग्रेजी से शिक्षा को, दलितोद्धार का एक मंत्र मानता है। इस पर तो एक दो पेजी चिट्ठी हंस को दे रहा हूं। पर और भी हैं, एक कोई श्योराज सिंह हैं, बाल्मीकि, या फिर मुस्लिम धार्मिक पर्सनल लॉ (पर्सनल मामलों की पर्सनल पंचैती) के पहरुए!
अतीत का उपयोग करके ही ऐसे मठाधीशों ने अपनी दुकान चला रखी है। जो इतिहास में जायें तब तो कोई बात ही नहीं बचेगी। पर, सवाल ये भी है कि, इतिहासकारों की खेमाबंदी का क्या होगा, जो खुद भी अलग विचारधाराओं पर आश्रित हैं-विचारधाराओं को बढ़ावा देते हैं। ताजा प्रकरण NCERT  का है। शेष पुनः।
आपका
मयंक

Friday, August 13, 2010

पत्र संख्या-7

लोहियानगर, कंकड़बाग, पटना-20, 21. 8. 03।

राजू भैया
प्रणाम।

जभी घर से लौटा तभी आपकी चिट्ठी मिली-बहुत सुखद लगा। यह मेरे जैसे ‘नवजात’ के लिए खुशी से मर जाने का विषय है कि आपको मेरी कविताएं पसंद आयीं-क्या वाकई आयीं भैया ? मुझे इस शहर के प्रायः हर ख्यात-कुख्यात रचनाकार जानते हैं-संभवतः सबने ‘‘हिन्दुस्तान’’ देखा होगा। पर, वे कविताएं किसी (को) ‘बुरी’ तक न लगीं-अच्छी लगी होंगी, मैं कल्पना क्यों और कैसे करूं ? काश कि आप जैसे लोग ही होते-मैं आपका बहुत आभारी हूं। सचमुच, मुझे बल मिला है। मेरी कुछ कविताएं ‘तद्भव’, ‘हंस’, ‘कथन’ में भी अटकी हैं, पता नहीं वे पाठकों के सामने कब पटकी जाएंगी ? खैर, लौटें अपनी बात पर। आप साधिकार मुझे ‘लोकदायरा’ बेचने के लिए दे सकते हैं, कभी भी। मैं कोशिश करूंगा कि हर अंक की दस प्रति बेच दूं। कुछ विशेष सहयोग भी दिला दूंगा। अपना सहयोग तो खैर दूंगा ही। मैं ग्रासरुट पर होने वाले कामों में हीं तो ‘होम’ होने के लिए बना हीं हूं। दो कविताएं भी भेज रहा हूं-पसंद न आने पर पूरे अभिभावकीय उत्तरदायित्व के साथ सूचित कर देंगे-दूसरी दूंगा।

विशेष मिलने पर।
आपका अपना
हरेप्रकाश उपाध्याय

पत्र संख्या-6

लोहियानगर, कंकड़बाग, पटना: 7.7. 2003।
 
आदरणीय भैया
नमस्कार।
 
लोकदायरा-5 पढ़ गया हूं-बड़ा ही गंभीर और प्रतिबद्ध आयोजन। आपने कलेवर छोटा भले ही रखा है, पर आपका फलक बहुत बड़ा है। यह अत्यंत ही अजीब है कि इस भाषा में बड़े कलेवर में छोटे-छोटे काम करने की जहाँ परंपरा है, वहां आप इसके उलट अपने जीवट से नया और महत्वपूर्ण कर रहे हैं। जिस राज्य में पद, पुरस्कार, पैसा के लिए भोंका-भोंकी मची है, उसी राज्य से आप अपने सीमित साधन से बगैर बाजार और विज्ञापन की वैशाखी लिए, अपनी रोटी का हिस्सा खिलाकर साहित्य-संस्कृति पोसने का काम कर रहे हैं। यह मेरे जैसे लोगों के लिए प्रेरणास्पद बात है। आपके यज्ञ के निमित्त अपन का भी कुछ रक्त-स्वेद होम हो सका तो अपने को कृतार्थ समझूंगा।
शीघ्र ही रचनाएं भेजने की कोशिश करूंगा। अन्य सेवा भी बताएँ। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
अपना 
हरेप्रकाश उपाध्याय

Wednesday, August 11, 2010

पत्र संख्या-5

भिलाई, 27. 11. 2000।

प्रिय भाई राजू,

तुम्हारा पत्र और मुकुल जी के कविता संग्रह की समीक्षा मिली। मैंने अभी-अभी मुकुल जी का संग्रह दुबारा पढ़ा है और तुमसे ठीक पहले उन्हें पत्र भी लिख चुका हूं। ऐसे में तुरन्त तुम्हारी समीक्षा से गुजरना एक सुखद अनुभव से दो चार होना है। तुम्हारी समीक्षा बहुत सारे पेशेवर और धंधई समीक्षकों और आलोचकों से बहुत अच्छी लगी। भाषा भी धारदार, रचनात्मक और वैचारिक उष्मा से भरी हुई है। कोई विश्वास नहीं करेगा कि यह समीक्षा एक इतिहास के ईमानदार विद्यार्थी ने लिखी है। मुकुल जी की कविता की ताकत, सीमाओं और अंतर्विरोधों को तुमने ठीक ही पहचाना है। शहर विरोध वाला प्रसंग कुछ ज्यादा लंबा हो गया है पर अंतर्विरोध की ओर ईमानदारी से ध्यान दिलाकर तुमने अच्छा ही किया है। बाजार, सामाजिक संघर्ष आदि के परिप्रेक्ष्य में उनकी कविताओं की व्याख्या बिल्कुल सटीक है पर पता नहीं क्यों मुकुल जी की प्रकृति और अमूर्त मानवीय प्रवृत्तियों से सम्बन्धित अत्यंत ही मूर्त और बिम्बधर्मी कविताएं कैसे तुम्हारी पकड़ से छूट गयी और तुमने उस पर बिल्कुल नहीं लिखा, हालांकि एक जगह तुमने इस ओर ध्यान अवश्य दिलाया है। मेरा मानना है कि मुकुल जी का कवि मन प्राकृतिक दृश्यों के बीच ही ज्यादा रमता है और वहीं उनकी कविता की रंगत ज्यादा खिलती है। प्रकृति का आकर्षण उन्हें इस कदर खींचता है कि उस पल में वे जगत की असुंदरताओं और विडंबनाओं को प्रायः भूल ही जाते हैं। मुझे लगता है कि जिस तरह वे शहरों से भागकर गांव और कस्बों की ओर जाते हैं, उसी तरह जीवन की कुरूपताओं से उबकर वे प्रकृति के सौंदर्य और रोमान के पनाह लेते हैं। रोमान अगर यथार्थ के साथ घुल मिल जाये तो वह कविता की बहुत बड़ी ताकत बन जाता है। इस संगह में कवि का व्यक्तित्व यथार्थ और प्रकृति प्रेम तथा रोमान के बीच विभाजित दिखायी पड़ रहा है। एक की क्षतिपूर्ति वह दूसरे से करता हुआ दिखायी पड़ता है। ‘पहाड़’ और ‘बारिश’ जैसी कुछ कविताओं में ये दोनों व्यक्तित्व एक दूसरे से घुल-मिल गये हैं, अतः वहां कविता का सौंदर्य कुछ और है। मुकुल जी को पढ़ते हुए हिन्दी कवियों में शमशेर ही मुझे बहुत याद आये। इस संग्रह की कुछ सीमाएं तो हैं पर उससे उबरने के रास्ते भी मुझे इसी में दिखायी पड़ रहे हैं। अतः यह संग्रह स्वागत योग्य है।

इधर डेढ़ दो महीनों में कई महत्वपूर्ण संग्रह पढ़े। उन सभी संग्रहों से कहीं ज्यादा अच्छी और सुन्दर कविताएं मुझे इस संग्रह में पढ़ने को मिलीं। इन कविताओं पर लिखना इन पर अहसान करना नहीं है, बल्कि अपने आलोचनात्मक कर्म की चुनौतियों को स्वीकार करना ही है। अतः इस संग्रह पर लिखने के तुम्हारे सुझाव को मैं सिफारिश के रूप में बिल्कुल नहीं ले रहा। इस पर लिखने की खुद मेरी हार्दिक इच्छा है। लेकिन खुद की रचनात्मक स्थिति और कुछ कामों का उलझाव अभी फिलहाल मुझे इसकी इजाजत नहीं दे रहा है। किसी भी कवि को पढ़ना उसे अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना लेना है। मुकुल जी की ये कविताएं भी मेरे रचनात्मक व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन गयी है। यह सही है कि इस संग्रह पर लिखे जाने का उचित अवसर यही है। लेकिन अपने कुछ कामों के साथ अभी इस कार्य का सामंजस्य मैं नहीं बैठा पा रहा हूं। यह मेरी पीड़ा भी है और विवशता भी। लेकिन इन कविताओं का ऋण मेरे ऊपर है और मुकुल जी को कहना कि उनका ऋणी हूं। ऋण चुकाऊंगा जरूर, लेकिन कब अभी इसका वादा नहीं करूंगा।

तुम्हारी समीक्षा अच्छी है। यह ‘विकल्प’ या ‘बहुमत’ दोनों में से कहीं अवश्य छप जायेगी। ‘विकल्प’ के नक्सलबाड़ी का दूसरा अंक कंपोज हो चुका है। तीसरा अंक आने में संभवतः कुछ देर लगे। अतः ‘बहुमत’ के किसी अच्छे अंक में इसे प्रकाशित किये जाने का प्रयास करूंगा। 

शेष कुशल है। तुम्हारा पत्र पाकर बहुत अच्छा लगा। समय पर पत्र न लिख पाना मेरी बहुत बड़ी कमजोरी है पर तुमलोगों की याद हमेशा बनी रहती है। मुकुल जी को मेरी ओर से बधाई देना। गर्मी की छुट्टियों में तुमलोगों से न मिल पाने का गहरा मलाल है। घर की परिस्थितियां उस समय बहुत ही विषम थीं और मैं अत्यधिक तनावग्रस्त था। अतः चाहते हुए भी नहीं आ पाया। मित्रों से कहना वे मुझे माफ करेंगे। 

तुम्हारा 
सियाराम शर्मा 
शासकीय महाविद्यालय उत्तई, दुर्ग, छत्तीसगढ़।

Tuesday, August 10, 2010

पत्र संख्या-4


भिलाई, 3. 4. 98।

प्रिय भाई राजू,
‘विकल्प’ के प्रवेशांक की तैयारी का कार्य अब अंतिम चरण में है। ‘ल्योतार’ वाले लेख के अनुवाद का कार्य पूरा कर चुके होगे, ऐसी आशा करता हूँ। कृपया उसे शीघ्र भेजने का कष्ट करो।

‘विकल्प’ का तीसरा अंक तुम्हें प्राप्त हो चुका होगा। नहीं मिला होगा तो शीघ्र ही मिल जायेगा। तुम्हारी समीक्षा प्रकाशित हो गयी है।

आलोकधन्वा अभी पटना में हैं कि नहीं इसकी सूचना देना।
शेष सब कुशल है। आशा है सपरिवार स्वस्थ और प्रसन्न होगे।
मंगलकामनाओं के साथ
तुम्हारा
सियाराम शर्मा
शासकीय महाविद्यालय उतई
जिला-दुर्ग (म. प्र.)
पिन-491107

Monday, August 9, 2010

पत्र संख्या-3

आमगोला, मुजफ्फरपुर, 22.1.92.                                                                                               
भाई राजू जी,

आपका पत्र मिला। आभारी हूँ। पत्र का उत्तर विलंब से दे पा रहा हूँ। कारण, अपनी व्यस्तता, काम, दैनिक पत्र, व घरेलू झंझटें! आपके लिए एक प्रति अपनी पुस्तक की पटना जाकर पारिजात में पं. जी को दे दूँगा। उनसे मिलकर आप वसूल लीजिएगा। इधर दो-बार पटना आया, पर 1 ही दिन हेतु। बड़ी ही व्यस्तता रही।

हाँ, दैनिक हिन्दुस्तान में आपके स्तंभ हेतु हर प्रकार से मदद को तैयार हूँ। आप चाहें तो यहीं आकर साक्षात्कार ले लें, या चाहें तो पत्र द्वारा प्रश्नादि भेज दें। मैं लिखकर भेज दूँगा पत्र द्वारा ही सुविधा भी रहेगी। फुर्सत से लिख पा सकूँगा।

हाँ, इधर आएँ तो जरूर आईएगा।
विशेष शुभ
आपका                                                                                                         
चन्द्रमोहन प्रधान                                                                                                          
22.1.92

Sunday, August 8, 2010

पत्र संख्या-2

सहरसा, 6.12.90।
रंजन जी,                                                                                      

आपका पत्र मिला। बहुत-बहुत धन्यवाद।                                                                                    

दरअसल इतिहास का वो कड़ुवा सच आज के आधुनिक समाज की नियति बन चुका है। मैं ये मानता हूं कि उनकी (मिश्र जी की) कविता में जो मुसलमान सोचता है वो दरअसल यथार्थ जीवन में हिंदू की मनोदशा है। लेकिन ये तो मिश्र जी के सोचने का ढंग था। इतिहास के इस कड़वे सच के बारे में सोचने का हर किसी का अपना अलग ढंग हो सकता है और जरूरी नहीं है कि हर कोई इसे कड़वे सच के रूप में ही स्वीकार करे।

आपने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर अपने सोचने का ढंग दर्शाया, जो कि सचमुच सराहनीय था। सच कहूं, तो मुझमें इतनी तेज-तर्रार प्रतिक्रिया व्यक्त करने की क्षमता नहीं है।

आपने तो अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं। आशा है, मेरे पत्रों के जवाब उन्हीं शब्दों में मिलते रहेंगे।                        

धन्यवाद                                                                                  
गौतम राजरिशी                                                                                   
द्वारा-डा. रामेश्वर झा                                                                                      
पूरब बाजार,                                                                                   
सहरसा 852201.

Saturday, July 31, 2010

पत्र संख्या-1

सहरसा, 1990                                                                                                         
.....रंजन जी,                                                                                                         

आप आश्चर्यचकित होंगे कि यह बिना संबोधन का पत्र कैसा! दरअसल मैं यह निर्णय नहीं ले सका कि मैं आपको कैसे सम्बोधित करूँ। आप भी सोचते होंगे कि मैं हूँ कौन। जान-न-पहचान यूँ ही बड़बड़ किए जा रहा हूँ। दरअसल मैं आपकी प्रतिक्रिया (‘मुसलमान’ कविता के बारे में) पढ़कर, यह पत्र लिखने पर मजबूर हो गया। दिनांक 16 नवंबर के नवभारत टाइम्स में ‘गांधी मैदान’ (यह पाठकों के पत्रों का कॉलम हुआ करता था) में छपे आपके पत्र ‘कवि का चेहरा’ ने मुझे काफी प्रभावित किया और मैं उसकी प्रशंसा किये बिना न रह सका। सचमुच, काफी तेज-तर्रार प्रतिक्रिया व्यक्त कि (की) है आपने। मैं उपयुक्त शब्द नहीं ढूंढ़ पा रहा हूँ, इस पत्र के (की) प्रशंसा के लिए।

खैर जो भी हो यदि मेरा पत्र आपको मिले तो कम-से-कम से जवाब जरूर दिजियेगा (दीजिएगा)। मैं अंतर-स्नातक का द्वितीय वर्ष का छात्र हूँ। यदि आप नवभारत टाइम्स नियमित रूप से पढ़ते हैं, तो आपको याद होगा कि एक पत्र ‘आगे-पीछे’ शिर्षक (शीर्षक) से गांधी मैदान में छपा था। उसे मैंने ही लिखा था।                                                      
मेरा पता है.
गौतम राजरिशी                                                                                                 
द्वारा-रामेश्वर झा
पूरब बाजार,                                                                                                    
सहरसा पिन-852201
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