Tuesday, August 31, 2010

पत्र संख्या-25

फारिसलेन, आदमपुर, भागलपुर, 12.12.02।

प्रिय चि. राजू जी,
जीभर आशीश
आपके द्वारा भेंटस्वरूप प्रदत्त ‘‘दायरा’’ को आद्योपान्त पढ़ा। किताब द्वारा आज के घिनौने राजनेता की अच्छी बखिया उघाड़ा गया है। तोता की आत्मकहानी भी प्रेरणादायक लगा। सबसे नामवर सिंह पर जो आलेख है उसमें अनोखे खोज की बात बतायी गयी है और अपने को दिग्गज कहलानेवाले साहित्यिक धाकड़ रामविलास शर्मा पर अच्छा चोट किया गया है। मिला जुलाकर आज के समाजिक उत्पीड़न की कविता ‘‘रूपकुंवर’’, ‘कुतिया’, ‘तीन दिनों की रैली’ काफी रोचक लगी। ‘‘बाबा’’ की मायावती पर जो कविता है वही इस अंक की जान है। शायद बाबा की निगाह मृत्यु-शय्या पर रहते भी उस नेत्री की फुहड़पन को बताने में बड़ी मसकत करनी पड़ी होगी।

अंत में आपके उस प्रयास के लिये और नये साहित्य सृजन पर अपने को संलग्न करने के लिये पुनः धन्यवाद देता हूं।
आपका
बाबूजी

Monday, August 30, 2010

पत्र संख्या-24

भागलपुर, 6 जून 02।

प्रिय राजू जी,
आशीश।
आपका भेजा ‘‘दायरा 3’’ अंक मिला। थोड़ा पढ़ा हूं। मुख्य पृष्ठ पर आपका सम्पादकीय पढ़ा। जोशी जी को मुंहतोड  उत्तर दिया गया है। साम्प्रदायिकता का (की) खाल ओढ़ कर देशभक्ति का पाठ भारत की जनता को सिखाना चाहते हैं। दूसरा अंतिम पृष्ठ का ‘‘बुढ़ापा’’ भी पढ़ा। याद आयी अपनी जवानी और आज के हलात की मजबूरी। पार्टी के लिये जवानी में बहुत कुर्बानी थी-और निष्ठा से पार्टी से प्यार था-परन्तु सब बेकार सा लगता है। आपने पार्टी अनुभव की बात लिखने को कहा है-कुछ लिख भेजूंगा। ‘‘अफगानिस्तान’’ भी पढ़ा बड़ा रोचक लगा। औरों को पढ़ूंगा और अनुभव लिखेंगे। अपना प्रयास जारी रखें। नितान्त जरूरत है ऐसी चीजों की।
‘‘बाबूजी’’

Sunday, August 29, 2010

पत्र संख्या-23

हाजीपुर, जहानाबाद, 3. 2. 97।

आदरणीय बाबा,
आपकी बीमारी लंबी खींच रही है, दुख है। स्वास्थ्य लाभ की कामना है। मेरे बारे में जो कुछ आपने लिखा है, उसमें अतिरंजना है कि नहीं मैं नहीं कह सकता। आप ही पर छोड़ता हूं। बहरहाल, खिंचाई में कड़ुवापन का स्वाद तो नहीं मिला, अलबता आपके स्वभाव के प्रतिकूल उसमें खीझ के दर्शन अवश्य हुअे (हुए)। ओह! बाबा वे लोग सचमुच बड़े भाग्यशाली होंगे जो बिना श्रम किये ही रास्ता ढूंढ़ लेते हैं... आप उनके बारे में क्या सोचते होंगे जिसे राह ने बीच में ही भरमाया हो यों कहें कि चकमा देकर हतप्रभ कर दिया हो। कुछ के लिए ‘अधूरापन’ टाल देना आसान होता है, मैं चक्कर में पड़ जाता हूं। रूका रह जाता हूं। त्रिशंकु की तरह। आप में सयानापन है, काबिलियत भी इसलिए नुस्खों की भरमार है। आप कुछ लिख रहे हैं। बड़े मजे की खबर है। जारी रखिए आपसे मुलाकात होगी, कवि के मुख से सुनने का आनंद भी मिलेगा, इसका आश्वासन बार-बार मिलता रहेगा, यह उम्मीद बराबर रहेगी।
आपका
अमरेन्द्र

Saturday, August 28, 2010

पत्र संख्या-22

हाजीपुर, जहानाबाद, 20. 3. 96। 

प्यारे बाबा,

हम क्षुद्र लोग हैं। कूपमंडूक हैं। अज्ञानता ही संबल है। आप शुभेच्छु हैं, मेरे लिए आपकी चिन्ता लाजमी है। आप तत्वदर्शी हैं, त्रिकालदर्शी भी। बाप रे! एक ही डूबकी में मेरा भूत, वर्त्तमान और भविष्य तीनों खोज लाना और उसे पूरे सज-धज के साथ बयान करना साधारण कार्य नहीं है। काबिलेतारीफ है। यह मामूली खत नहीं है, एक पूरा घोषणा-पत्र है। कदम-कदम पर चेतावनी, एक से बढ़कर एक नसीहतें और आखिर में मेरी समाप्ति की भविष्यवाणी। आप भाग्य-विधाता हैं, इससे आपकी शोभा में चार-चांद लगता है। नामवर जी को आग फूंक चुकी है। उनमें आप जैसी अकलियत कहां? आपकी बुद्धि की बारूद और गोलन्दाजी के सामने वे नहीं ठहर सकेंगे। हम जैसे लोग उनके पीछे भागें, यह बड़ा संगीन अपराध है, आप चुप न बैठ सकें, यह उचित है। हम जैसे लोगों से कोई उम्मीद बांधे इस पर भरोसा नहीं करता। हंसी जरूर आती है। ताज्जुब भी होता है। फिर भी एक-आध अक्ल का दुश्मन निकल भी आये तो आप जैसा तेज-तर्रार स्कॉलर उसके भ्रम का निवारण नहीं कर पायेगा, ऐसा सोचना पाप होगा। एक विनती है। आप उसे एक चिट्ठी कम-से-कम पोस्ट तो कर ही सकते हैं। इस तरह मैं बैठे-बिठाये एक बड़े भारी कर्ज से मुक्त हो जाऊंगा।

मैं हमला करने में दक्ष नहीं हूं। विश्वास भी नहीं रखता। भाल-रक्षा तो प्राणीमात्र का धर्म है। आशा है जब-तब इसी तरह कृतार्थ करते रहेंगे, बस...।
आपका
अमरेन्द्र

Friday, August 27, 2010

पत्र संख्या-21

मीठापुर, पटना-1.

सेवा में,
आदरणीय,
संपादक महोदय, लोक दायरा!
मैंने आपकी प्रतिष्ठित पत्रिका देखी, देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई, बहुत ही नई चिजें (चीजों) को आपने इस पत्रिका में स्थान दिया। इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूं। मैं भी थोड़ा बहुत लिख लिया करती हूं। इसलिए मैं सोची की (कि) आपकी पत्रिका में अपनी रचना भेजूंगी। पत्र मिलते ही पत्र लिखने का कृपया कष्ट करेंगे। इसके लिए मैं आपकी आभारी रहूंगी। धन्यवाद सहीत (सहित) आपकी
प्रिति कुमारी
हाउस ऑफ चंद्रकला देवी (रेलवे कार्यरत)
नियर-अर्जुन महतो,
भरतलाल टेन्ट हाउस रोड, ‘मीठापुर’, पटना-1

पत्र संख्या-20

हैदराबाद, 4.5.02।

प्रिय भाई राजू जी,
धीरे-धीरे यहां सब ठीक हो रहा है। आज काम किए सप्ताह भर हो गए। सोमवार को प्रेस कार्ड बन जाएगा। मतलब नौकरी पक्की हुई। पर यहां मन जरा भी नहीं लगता। दूसरे दिन ही लौटने को सोचा था। पैसा 5 के उपर (ऊपर) नहीं दे रहा था पर लगता है अब छः के उपर (ऊपर) देगा। मेरी मांग 8 है। ज्यादा दिन यहां नहीं रहा जा सकता। एक कमरा लिया है 600 में। आगे घर लूंगा तो बेबी को लाने की सोचूंगा। मेरे काम से सभी संतुष्ट हैं यहां। बिहार-यूपी के बहुत लड़के हैं। मेरी ड्यूटी 10 से शाम 7 तक है। संपादकीय पेज और फीचर मिला है देखने को। शुरू में अंग्रेजी अनुवाद पर बहस हो गयी थी संपादक से। खूब भाषण पिलाया था उसे फिर भी रख लिया। लगता है उसे मेरी जरूरत थी। बेबी-सोनू की खबर लेंगे। गट्टू कैसा है? आपलोगों की काफी याद आती है।
कुमार मुकुल

Wednesday, August 25, 2010

पत्र संख्या-19

हैदराबाद, 17.9.02।

प्रिय भाई।
यहां सब ठीक है। आप तो ठीक हैं ही। होमियोपैथी डिग्री छः महीने में मिल जाएगी तो पहले यहीं साथ-साथ क्लिनिक खोल दूंगा। कुछ जम जाएगा तो धीरे-धीरे पटना शिफ्ट करूंगा। बाकी लेखन भी चल रहा है। यों स्टार फीचर में साल भर में काफी विकास हो सकता है। बच्चों के लिए एक पत्रिका निकालने की बात आज कह रहा था। फीचरवाला बोला-आपको संपादक बना देंगे। अगर काम बढ़ता है तो आप भी मन बनाए रखिएगा। कुछ दिन..... बेबी से मेरा मैट्रिक, एम. ए. व होम्योपैथी वाले सर्टीफिकेट का फोटो स्टेट जरूर लाने को कहिएगा। गट्टू को कहिएगा पत्र देने को।

आपका
कुमार मुकुल

Tuesday, August 24, 2010

पत्र संख्या-18


हैदराबाद, 19.6.02।
 
प्रिय भाई राजू जी,
नमस्कार।
आपका दूसरा कार्ड मिला। मैंने इस बीच तस्लीमा का साक्षात्कार भेजा जो मिल गया होगा। अंक (लोक दायरा का) दे दिया यह अच्छा किया। जुलाई में मैं या मदन जी आएंगे पटना तो अंक दे देंगे। मदन जी जाएंगे तो आप उनसे भी भेज देंगे। यहां सब चल रहा है। वहां आप चंद्रेश्वर विद्यार्थी जी को एक बार फोन पर मेरा नमस्कार कहेंगे और पता करेंगे कि वे किसी अखबार पत्रिका को ज्वायन किये या नहीं। उनका नंबर है-293979-उनसे बोरिंग रोड जाने पर संभव हो तो मिलिएगा भी। कुमार किशोर को तो आप जानते ही हैं उन्हें भी फोन करेंगे और उनका डेरे का पता लेकर मुझे भेजेंगे। उनका नंबर है-682076। लोक दायरा के बिक्री में कुमार किशोर जी की मदद भी ले सकते हैं। बेबी 26 जून तक आ जाएगी पटना। सोनू का ख्याल रखिएगा। गट्टू का क्या हाल है? मैडम के हाथदर्द की दवा मिली या नहीं? गट्टू के नानाजी को नमस्कार कहेंगे।
आपका
कुमार मुकुल

पत्र संख्या-17

हैदराबाद, 29.8.02।

प्रिय भाई राजू जी,
आशा है सानंद होंगे। मैं भी ठीक हूं। दो कमरे का एक मकान लिया है, भीड़-भाड़ से थोड़ा बाहर प्रकृति की गोद में 1500 में। परिवार को जल्द ही बुलाना होगा-देखें कबतक कैसे होता है। अनुवाद का भी कुछ काम मिलनेवाला है, अलग से। त्रिवेन्द्रम होमियो मिशन को कार्ड डाला था जवाब आ गया है। वहां का भी कोर्स साल भर में कर लूंगा। हमारे फीचर को आज ही हिन्दी के सबसे बड़े अखबार ‘दैनिक भास्कर’ की ओर से साल भर का आर्डर मिला है। आफिस में सब कुछ भला सा है। जो चाहता हूं वही लिखता हूं। पर नियमित। इस तरह बच्चों व किशोरों के लिए कुछ किताबें लिख सकूंगा यहां रहकर। एक कविता मोदी के खिलाफ ‘हंस’ को भेजी है। गट्टू कैसा है? मोती और मैडम? मोती की क्या योजना है?

कुमार मुकुल

Sunday, August 22, 2010

पत्र संख्या-16

हैदराबाद, 26.12.02।
 
प्रिय भाई राजू जी,
नमस्कार।
यहां सब पूर्ववत चल रहा है। कंपनी थोड़ी लड़खड़ा रही है। पेमेन्ट किश्तों में और देर से हो रहा है। यूं आश्वस्त किया जा रहा है कि यह संकट एक-दो माह का है। जो भी हो आप क्या कर रहे हैं? ‘लोक दायरा’ क्या प्रेस में गया ? मोती को पीछे लिखा होमियोपैथी संस्थान का पता दे देंगे। यह नया पता है। और यहां सब ठीक है। बेबी, बच्चे ठीक हैं। गट्टू कैसा है ? मैडम की दवा तो आप ला दिए होंगे-सेनेशिया-क्यू। पत्र देंगे। अन्य साहित्यिक गतिविधि लिखेंगे। अपना भी।
कुमार मुकुल

Saturday, August 21, 2010

पत्र संख्या-15

पटना-23, तिथि अज्ञात।

प्रिय संपादक जी,
लोक दायरा-2 में मेरी दो कविताऐं (कविताएं) छपी (छपीं), सहृदय धन्यवाद। लोक दायरा 1 और 2 दोनों पढ़ा। कम पृष्ठों की अच्छी पत्रिका पठनिऐं (पठनीय) एवं संग्रहनिऐं (संग्रहनीय) है।
पत्रिका में कुछ नवागन्तुओं (नवागन्तुकों) की कविताऐं (कविताएं) छापी गई (गईं)। जिसमें मुझे भी स्थान मिला। आशा है, लोक दायरा अनियतकालीन पत्रक नियतकालीन पत्रिका बनकर आती (आता) रहे। धन्यवाद!
आपका
मणि भूषण

Friday, August 20, 2010

पत्र संख्या-14

हैदराबाद, 8.4.04

प्रिय भाई राजू जी,
नमस्कार।
लोक दायरा की प्रतियां मिलीं। अंक अच्छा बन पड़ा है। अमरेन्द्र की कविताएं लाजवाब हैं। समीक्षक की जगह अपना नाम देना चाहिए था। अमरेन्द्र का नाम बोल्ड होना चाहिए था। मनीष की कविता भी अच्छी लगी। विद्यानंद जी के अनुवाद देते रहेंगे। रामसुजान जी से कुछ अलग मुद्दों पर लगातार लिखवाएं। यहां सब करीब ठीक है। ‘हंस’ के मई अंक में मेरी नयी कविताएं आ जाएंगी। मणि जी क्या कर रहे हं ? अजय-श्रीकांत जी से भेंट होती है क्या ? विजय ठाकुर जी से ले इतिहास पर छोटी टिप्पणियां छापें। सियाराम जी की कोई खबर है या नहीं ? और पटना का साहित्यिक मिजाज कैसा है ? स्कूल की पत्रिका का कोई अंक निकला या नहीं ? साथ का कार्ड घर पहुंचवा देंगे। बेबी स्कूल जाने लगी है। मोती क्या कर रहे हैं ? गट्टू को पत्र लिखने क्यों नहीं कहते ? आगे के अंक के लिए यहां की पत्रकारिता पर एक टिप्पणी लिखूंगा। विनय कुमार की पत्रिका के लिए वेणु गोपाल पर रोचक टिप्पणी लिख दी है मैंने।
शेष पत्र दें।
-मुकुल

Thursday, August 19, 2010

पत्र संख्या-13

हैदराबाद, 24. 3. 03।
प्रिय भाई राजू जी,

नमस्कार। आपका कार्ड मिला। यहां सब ठीक है। आज बेबी ने थोड़ी दूर पर कोई स्कूल ज्वायन किया है। छः मिलेंगे जिसमें जाने-आने का भाड़ा दो ले लगेगा पर इस तरह वह व्यस्त रहेगी और कुछ सीखेगी भी जैसाकि पटना में हुआ था। अब तक यहां सब वही संभाल रही थी। बीच में एक जटिल दुर्घटना हुई थी। मैं तो सब देखता-चेतता रहता हूं-पर वह तभी सीखती है जब उसे खुद उसका अनुभव होता है। नही तो पहले यूं ही आंटी लोग के यहां घूमने-खाने में समय बर्बाद करती थी और पैसा भी। हंस में कविताएं भेजी हैं-मांग की गई थी और ‘लोक दायरा’ निकला या नहीं? बेबी अपनी मैडम (मेरी पत्नी) को हमेशा याद करती है। मैंने कहा वहीं जाओ, साथ पढ़ाना और बच्चों को देखना-मैं भी लौटने की व्यवस्था करूंगा। यूं ही....होम्यो की अंतिम परीक्षा दे दी है...। मनीष क्या लिख रहा है और आपका शोध पूरा हुआ या नहीं। अतीत खींचता है। बराबर...पर...

कुमार मुकुल

पत्र संख्या-12

दिल्ली, 21.10. 2003।

भाई राजूरंजन जी,
नमस्कार,                                                                                                          
‘हंस’ अक्तू. ‘03 अंक में प्रकाशित आपकी रचना का प्रतीक पारिश्रमिक ‘हंस’ की वार्षिक सदस्यता में समायोजित किया जा रहा है। नवंबर ‘03 से अक्तू. ‘04 के लिए आपकी सदस्यता दर्ज की जा रही है। नवंबर 03 अंक 5.11.03 को भेजा जाना है-प्रतीक्षा करें। 
सादर
वीना उनियाल

Tuesday, August 17, 2010

पत्र संख्या-11

आमगोला, मुजफ्फरपुर, 2002
 
प्रिय राजू जी,
सादर नमस्कार, 
आपका कार्ड तो समय पर मिला था, किंतु व्यस्तता बहुत थी, उत्तर देना भूलता रहा! खैर,
आपने एक चुनौती को स्वीकार किया है। मार्ग अवश्य कंटकाकीर्ण है, तथापि आप जैसे ऊर्जावान व्यक्ति ही ऐसी चुनौतियाँ स्वीकार कर, उन्हें हल भी करते हैं। यह मुझे विश्वास है आपको सफलता अवश्य मिलेगी। ‘‘दायरा’’ ने जिस प्रकार प्रारंभिक लघु रूप में ही अपना महत्त्व स्थापित करके ध्यानाकर्षण किया है, वह श्लाघ्नीय है।
 
मेरी प्राचीन कल्पना है, कि ऐसी कोई स्पष्टवक्ता पत्रिका हो, जो ‘‘पाठक मंच’’ का कार्य भी करे। ध्यातव्य है, कि साहित्यिकता को केन्द्र बनाकर छपनेवाली पत्रिकाएँ अपनी प्रशस्तियाँ ही अधिक छाप रही हैं, आलोचना तथा सुझावों के प्रति वे सामूहिक मौन रखती हैं। ‘‘दायरे’’ (दायरा) छोटी, प्रारंभिक पत्रिका है, तथापि ऐसी अनेक पत्रिकाएँ हैं जो अच्छी तरह से स्थापित हैं। बहुत विज्ञापन बटोरती भी हैं, तथा कागज, छपाई, व्यवस्था, डाक आदि व्ययों में कोताही नहीं करतीं, किंतु मसिजीवी लेखकों को ही सौ-पचास का पारिश्रमिक तक नहीं देतीं! अच्छे लेखक अपनी रचनाओं से उन का मान बढ़ाते हैं, किंतु वे अपनी उत्तम रचनाएँ रु. देनेवाली पत्रिकाओं को अधिक देने पर यों ही मजबूर हो जाते हैं! इसपर ये पत्रिकाएँ मौन हैं। यह प्रश्न तो पहले कुछ लोगों ने सामने रखा था, किंतु पत्रिकाएँ मौन रहीं और मामला वहीं ठप रह गया! आपका क्या विचार है ?
 
सधन्यवाद
सादर आपका
चन्द्रमोहन प्रधान

पत्र संख्या-10

आमगोला, मुजफ्फरपुर, 30.8. 2002।

प्रिय भाई राजू रंजन जी,

सादर नमस्कार।
 आपकी प्रेषित पत्रिका ‘‘दायरा’’-दो प्रतियां-मिलीं, धन्यवाद। पत्र में विलंब यों हुआ है कि अपनी शोध पुस्तक में बहुत व्यस्त रहा था। खैर।
पत्रिका बहुत छोटी, किंतु गागर में सागर जैसी समृद्ध है। कविता ने काफी जगहें ले ली हैं। डा. नामवर सिंह के प्रति मेरे उक्त पुराने कथन को आपने छापा है, सो अच्छा है, किंतु प्रूफ की बड़ी भूलें हैं, खासकर मेरी कहानियों के नामों में। कृपया आगामी अंक में यह ठीक कर देंगे-भूल सुधार। ‘कतार’ में कहानी ‘‘आदिम राग’’ है, ‘धर्मयुग’ की ‘‘रिश्ते’’ तो सही है, ‘आवर्त’ की कथा है ‘‘प्यास’’। कृपया ठीक कर छापेंगे नाम।

पत्रिका का कलेवर छोटा है, तथापि आप चाहेंगे तो कुछ अवश्य इसके योग्य भेजूँगा।
विशेष शुभ है। इधर आएँ तो मिलेंगे।
पुनश्चः ‘‘औपनिवेशिक’’ लेखन का तात्पर्य स्पष्ट नहीं समझा!
चन्द्रमोहन प्रधान

Sunday, August 15, 2010

पत्र संख्या-9

नयी दिल्ली, 5.5.98।
 
प्रिय राजू भाई,
मंगल-कामना!  
आपका कार्ड मिला। आपकी कुशल जानकर खुशी हुई। बीच-बीच में अशोक से आपका हालचाल मालूम होता रहता है। सीधे पत्र पाकर बहुत अच्छा लगा।
 
मेरी लिखी चीजों पर आपकी निगाह जाती है यह मेरे लिए आश्वस्तिदायक है। अगर जरूरी लगे तो कभी-कभार अपने नजरिए से मुझे परिचित करायेंगे ताकि अपनी चीजों को ‘सोधने’ में मदद मिल सके।
 
आपके लेख इधर और कहीं आए हों तो सूचित करेंगे। ‘विकल्प’ वाला लेख मैं पढ़ चुका हूँ। इसके अलावे ‘नालंदा’ पर लेख भी पसंद आया। सबसे बड़ी बात है कि एक अलग किस्म की भाषा एवं सोच से आपके यहाँ सामना है। पाठक बचकर निकल नहीं सकता। इस ताकत को और सार्थक ऊँचाई दें।
 
‘बाबा’ को लेकर दिल्ली में भी हल्की उत्तेजना है। कृपया आप तनिक विस्तार से उनके स्वास्थ्य एवं उनसे जुड़े मुद्दे के बारे में लिखें। क्या हमारे लिए कुछ हो सकता है ? उनके बेटों का रवैया क्या है ? उनकी आर्थिक स्थिति क्या है ? शेष ठीक है।
आपका
रामसुजान अमर

Saturday, August 14, 2010

पत्र संख्या-8


सिकरहुला, कारिया, बेगूसराय, 30.10.03।
 
प्रिय महोदय,
 
आपका आलेख अक्तूबर ‘03 हंस
इतिहास और अतीत के बारे में, अकादमिक तौर पर शायद पहली दफा और वह भी, बिल्कुल सहज तरीके से लिखा ऐसा आलेख पढ़कर जी खुश हो गया। आपसे यही उम्मीद थी। (चूंकि पटना के बौद्धिक वर्ग का एक अस्थायी सदस्य होने के नाते, अपनापन तो लगता ही है)! ज्यादा बावेला तब मचता, जब आपने बौद्धिक माफियाओं की उन स्थापनाओं को सप्रमाण, सोदाहरण ध्वस्त किया होता जिन पर उन्होंने अपने वैचारिक कंगूरे खड़े कर रखे हैं। एक कोई चंद्रभान प्रसाद (भाया-सहारा दैनिक) हैं, वह अंग्रेजी से शिक्षा को, दलितोद्धार का एक मंत्र मानता है। इस पर तो एक दो पेजी चिट्ठी हंस को दे रहा हूं। पर और भी हैं, एक कोई श्योराज सिंह हैं, बाल्मीकि, या फिर मुस्लिम धार्मिक पर्सनल लॉ (पर्सनल मामलों की पर्सनल पंचैती) के पहरुए!
अतीत का उपयोग करके ही ऐसे मठाधीशों ने अपनी दुकान चला रखी है। जो इतिहास में जायें तब तो कोई बात ही नहीं बचेगी। पर, सवाल ये भी है कि, इतिहासकारों की खेमाबंदी का क्या होगा, जो खुद भी अलग विचारधाराओं पर आश्रित हैं-विचारधाराओं को बढ़ावा देते हैं। ताजा प्रकरण NCERT  का है। शेष पुनः।
आपका
मयंक

Friday, August 13, 2010

पत्र संख्या-7

लोहियानगर, कंकड़बाग, पटना-20, 21. 8. 03।

राजू भैया
प्रणाम।

जभी घर से लौटा तभी आपकी चिट्ठी मिली-बहुत सुखद लगा। यह मेरे जैसे ‘नवजात’ के लिए खुशी से मर जाने का विषय है कि आपको मेरी कविताएं पसंद आयीं-क्या वाकई आयीं भैया ? मुझे इस शहर के प्रायः हर ख्यात-कुख्यात रचनाकार जानते हैं-संभवतः सबने ‘‘हिन्दुस्तान’’ देखा होगा। पर, वे कविताएं किसी (को) ‘बुरी’ तक न लगीं-अच्छी लगी होंगी, मैं कल्पना क्यों और कैसे करूं ? काश कि आप जैसे लोग ही होते-मैं आपका बहुत आभारी हूं। सचमुच, मुझे बल मिला है। मेरी कुछ कविताएं ‘तद्भव’, ‘हंस’, ‘कथन’ में भी अटकी हैं, पता नहीं वे पाठकों के सामने कब पटकी जाएंगी ? खैर, लौटें अपनी बात पर। आप साधिकार मुझे ‘लोकदायरा’ बेचने के लिए दे सकते हैं, कभी भी। मैं कोशिश करूंगा कि हर अंक की दस प्रति बेच दूं। कुछ विशेष सहयोग भी दिला दूंगा। अपना सहयोग तो खैर दूंगा ही। मैं ग्रासरुट पर होने वाले कामों में हीं तो ‘होम’ होने के लिए बना हीं हूं। दो कविताएं भी भेज रहा हूं-पसंद न आने पर पूरे अभिभावकीय उत्तरदायित्व के साथ सूचित कर देंगे-दूसरी दूंगा।

विशेष मिलने पर।
आपका अपना
हरेप्रकाश उपाध्याय

पत्र संख्या-6

लोहियानगर, कंकड़बाग, पटना: 7.7. 2003।
 
आदरणीय भैया
नमस्कार।
 
लोकदायरा-5 पढ़ गया हूं-बड़ा ही गंभीर और प्रतिबद्ध आयोजन। आपने कलेवर छोटा भले ही रखा है, पर आपका फलक बहुत बड़ा है। यह अत्यंत ही अजीब है कि इस भाषा में बड़े कलेवर में छोटे-छोटे काम करने की जहाँ परंपरा है, वहां आप इसके उलट अपने जीवट से नया और महत्वपूर्ण कर रहे हैं। जिस राज्य में पद, पुरस्कार, पैसा के लिए भोंका-भोंकी मची है, उसी राज्य से आप अपने सीमित साधन से बगैर बाजार और विज्ञापन की वैशाखी लिए, अपनी रोटी का हिस्सा खिलाकर साहित्य-संस्कृति पोसने का काम कर रहे हैं। यह मेरे जैसे लोगों के लिए प्रेरणास्पद बात है। आपके यज्ञ के निमित्त अपन का भी कुछ रक्त-स्वेद होम हो सका तो अपने को कृतार्थ समझूंगा।
शीघ्र ही रचनाएं भेजने की कोशिश करूंगा। अन्य सेवा भी बताएँ। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
अपना 
हरेप्रकाश उपाध्याय

Wednesday, August 11, 2010

पत्र संख्या-5

भिलाई, 27. 11. 2000।

प्रिय भाई राजू,

तुम्हारा पत्र और मुकुल जी के कविता संग्रह की समीक्षा मिली। मैंने अभी-अभी मुकुल जी का संग्रह दुबारा पढ़ा है और तुमसे ठीक पहले उन्हें पत्र भी लिख चुका हूं। ऐसे में तुरन्त तुम्हारी समीक्षा से गुजरना एक सुखद अनुभव से दो चार होना है। तुम्हारी समीक्षा बहुत सारे पेशेवर और धंधई समीक्षकों और आलोचकों से बहुत अच्छी लगी। भाषा भी धारदार, रचनात्मक और वैचारिक उष्मा से भरी हुई है। कोई विश्वास नहीं करेगा कि यह समीक्षा एक इतिहास के ईमानदार विद्यार्थी ने लिखी है। मुकुल जी की कविता की ताकत, सीमाओं और अंतर्विरोधों को तुमने ठीक ही पहचाना है। शहर विरोध वाला प्रसंग कुछ ज्यादा लंबा हो गया है पर अंतर्विरोध की ओर ईमानदारी से ध्यान दिलाकर तुमने अच्छा ही किया है। बाजार, सामाजिक संघर्ष आदि के परिप्रेक्ष्य में उनकी कविताओं की व्याख्या बिल्कुल सटीक है पर पता नहीं क्यों मुकुल जी की प्रकृति और अमूर्त मानवीय प्रवृत्तियों से सम्बन्धित अत्यंत ही मूर्त और बिम्बधर्मी कविताएं कैसे तुम्हारी पकड़ से छूट गयी और तुमने उस पर बिल्कुल नहीं लिखा, हालांकि एक जगह तुमने इस ओर ध्यान अवश्य दिलाया है। मेरा मानना है कि मुकुल जी का कवि मन प्राकृतिक दृश्यों के बीच ही ज्यादा रमता है और वहीं उनकी कविता की रंगत ज्यादा खिलती है। प्रकृति का आकर्षण उन्हें इस कदर खींचता है कि उस पल में वे जगत की असुंदरताओं और विडंबनाओं को प्रायः भूल ही जाते हैं। मुझे लगता है कि जिस तरह वे शहरों से भागकर गांव और कस्बों की ओर जाते हैं, उसी तरह जीवन की कुरूपताओं से उबकर वे प्रकृति के सौंदर्य और रोमान के पनाह लेते हैं। रोमान अगर यथार्थ के साथ घुल मिल जाये तो वह कविता की बहुत बड़ी ताकत बन जाता है। इस संगह में कवि का व्यक्तित्व यथार्थ और प्रकृति प्रेम तथा रोमान के बीच विभाजित दिखायी पड़ रहा है। एक की क्षतिपूर्ति वह दूसरे से करता हुआ दिखायी पड़ता है। ‘पहाड़’ और ‘बारिश’ जैसी कुछ कविताओं में ये दोनों व्यक्तित्व एक दूसरे से घुल-मिल गये हैं, अतः वहां कविता का सौंदर्य कुछ और है। मुकुल जी को पढ़ते हुए हिन्दी कवियों में शमशेर ही मुझे बहुत याद आये। इस संग्रह की कुछ सीमाएं तो हैं पर उससे उबरने के रास्ते भी मुझे इसी में दिखायी पड़ रहे हैं। अतः यह संग्रह स्वागत योग्य है।

इधर डेढ़ दो महीनों में कई महत्वपूर्ण संग्रह पढ़े। उन सभी संग्रहों से कहीं ज्यादा अच्छी और सुन्दर कविताएं मुझे इस संग्रह में पढ़ने को मिलीं। इन कविताओं पर लिखना इन पर अहसान करना नहीं है, बल्कि अपने आलोचनात्मक कर्म की चुनौतियों को स्वीकार करना ही है। अतः इस संग्रह पर लिखने के तुम्हारे सुझाव को मैं सिफारिश के रूप में बिल्कुल नहीं ले रहा। इस पर लिखने की खुद मेरी हार्दिक इच्छा है। लेकिन खुद की रचनात्मक स्थिति और कुछ कामों का उलझाव अभी फिलहाल मुझे इसकी इजाजत नहीं दे रहा है। किसी भी कवि को पढ़ना उसे अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना लेना है। मुकुल जी की ये कविताएं भी मेरे रचनात्मक व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन गयी है। यह सही है कि इस संग्रह पर लिखे जाने का उचित अवसर यही है। लेकिन अपने कुछ कामों के साथ अभी इस कार्य का सामंजस्य मैं नहीं बैठा पा रहा हूं। यह मेरी पीड़ा भी है और विवशता भी। लेकिन इन कविताओं का ऋण मेरे ऊपर है और मुकुल जी को कहना कि उनका ऋणी हूं। ऋण चुकाऊंगा जरूर, लेकिन कब अभी इसका वादा नहीं करूंगा।

तुम्हारी समीक्षा अच्छी है। यह ‘विकल्प’ या ‘बहुमत’ दोनों में से कहीं अवश्य छप जायेगी। ‘विकल्प’ के नक्सलबाड़ी का दूसरा अंक कंपोज हो चुका है। तीसरा अंक आने में संभवतः कुछ देर लगे। अतः ‘बहुमत’ के किसी अच्छे अंक में इसे प्रकाशित किये जाने का प्रयास करूंगा। 

शेष कुशल है। तुम्हारा पत्र पाकर बहुत अच्छा लगा। समय पर पत्र न लिख पाना मेरी बहुत बड़ी कमजोरी है पर तुमलोगों की याद हमेशा बनी रहती है। मुकुल जी को मेरी ओर से बधाई देना। गर्मी की छुट्टियों में तुमलोगों से न मिल पाने का गहरा मलाल है। घर की परिस्थितियां उस समय बहुत ही विषम थीं और मैं अत्यधिक तनावग्रस्त था। अतः चाहते हुए भी नहीं आ पाया। मित्रों से कहना वे मुझे माफ करेंगे। 

तुम्हारा 
सियाराम शर्मा 
शासकीय महाविद्यालय उत्तई, दुर्ग, छत्तीसगढ़।

Tuesday, August 10, 2010

पत्र संख्या-4


भिलाई, 3. 4. 98।

प्रिय भाई राजू,
‘विकल्प’ के प्रवेशांक की तैयारी का कार्य अब अंतिम चरण में है। ‘ल्योतार’ वाले लेख के अनुवाद का कार्य पूरा कर चुके होगे, ऐसी आशा करता हूँ। कृपया उसे शीघ्र भेजने का कष्ट करो।

‘विकल्प’ का तीसरा अंक तुम्हें प्राप्त हो चुका होगा। नहीं मिला होगा तो शीघ्र ही मिल जायेगा। तुम्हारी समीक्षा प्रकाशित हो गयी है।

आलोकधन्वा अभी पटना में हैं कि नहीं इसकी सूचना देना।
शेष सब कुशल है। आशा है सपरिवार स्वस्थ और प्रसन्न होगे।
मंगलकामनाओं के साथ
तुम्हारा
सियाराम शर्मा
शासकीय महाविद्यालय उतई
जिला-दुर्ग (म. प्र.)
पिन-491107

Monday, August 9, 2010

पत्र संख्या-3

आमगोला, मुजफ्फरपुर, 22.1.92.                                                                                               
भाई राजू जी,

आपका पत्र मिला। आभारी हूँ। पत्र का उत्तर विलंब से दे पा रहा हूँ। कारण, अपनी व्यस्तता, काम, दैनिक पत्र, व घरेलू झंझटें! आपके लिए एक प्रति अपनी पुस्तक की पटना जाकर पारिजात में पं. जी को दे दूँगा। उनसे मिलकर आप वसूल लीजिएगा। इधर दो-बार पटना आया, पर 1 ही दिन हेतु। बड़ी ही व्यस्तता रही।

हाँ, दैनिक हिन्दुस्तान में आपके स्तंभ हेतु हर प्रकार से मदद को तैयार हूँ। आप चाहें तो यहीं आकर साक्षात्कार ले लें, या चाहें तो पत्र द्वारा प्रश्नादि भेज दें। मैं लिखकर भेज दूँगा पत्र द्वारा ही सुविधा भी रहेगी। फुर्सत से लिख पा सकूँगा।

हाँ, इधर आएँ तो जरूर आईएगा।
विशेष शुभ
आपका                                                                                                         
चन्द्रमोहन प्रधान                                                                                                          
22.1.92

Sunday, August 8, 2010

पत्र संख्या-2

सहरसा, 6.12.90।
रंजन जी,                                                                                      

आपका पत्र मिला। बहुत-बहुत धन्यवाद।                                                                                    

दरअसल इतिहास का वो कड़ुवा सच आज के आधुनिक समाज की नियति बन चुका है। मैं ये मानता हूं कि उनकी (मिश्र जी की) कविता में जो मुसलमान सोचता है वो दरअसल यथार्थ जीवन में हिंदू की मनोदशा है। लेकिन ये तो मिश्र जी के सोचने का ढंग था। इतिहास के इस कड़वे सच के बारे में सोचने का हर किसी का अपना अलग ढंग हो सकता है और जरूरी नहीं है कि हर कोई इसे कड़वे सच के रूप में ही स्वीकार करे।

आपने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर अपने सोचने का ढंग दर्शाया, जो कि सचमुच सराहनीय था। सच कहूं, तो मुझमें इतनी तेज-तर्रार प्रतिक्रिया व्यक्त करने की क्षमता नहीं है।

आपने तो अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं। आशा है, मेरे पत्रों के जवाब उन्हीं शब्दों में मिलते रहेंगे।                        

धन्यवाद                                                                                  
गौतम राजरिशी                                                                                   
द्वारा-डा. रामेश्वर झा                                                                                      
पूरब बाजार,                                                                                   
सहरसा 852201.