सहरसा, 1990
.....रंजन जी,
आप आश्चर्यचकित होंगे कि यह बिना संबोधन का पत्र कैसा! दरअसल मैं यह निर्णय नहीं ले सका कि मैं आपको कैसे सम्बोधित करूँ। आप भी सोचते होंगे कि मैं हूँ कौन। जान-न-पहचान यूँ ही बड़बड़ किए जा रहा हूँ। दरअसल मैं आपकी प्रतिक्रिया (‘मुसलमान’ कविता के बारे में) पढ़कर, यह पत्र लिखने पर मजबूर हो गया। दिनांक 16 नवंबर के नवभारत टाइम्स में ‘गांधी मैदान’ (यह पाठकों के पत्रों का कॉलम हुआ करता था) में छपे आपके पत्र ‘कवि का चेहरा’ ने मुझे काफी प्रभावित किया और मैं उसकी प्रशंसा किये बिना न रह सका। सचमुच, काफी तेज-तर्रार प्रतिक्रिया व्यक्त कि (की) है आपने। मैं उपयुक्त शब्द नहीं ढूंढ़ पा रहा हूँ, इस पत्र के (की) प्रशंसा के लिए।
खैर जो भी हो यदि मेरा पत्र आपको मिले तो कम-से-कम से जवाब जरूर दिजियेगा (दीजिएगा)। मैं अंतर-स्नातक का द्वितीय वर्ष का छात्र हूँ। यदि आप नवभारत टाइम्स नियमित रूप से पढ़ते हैं, तो आपको याद होगा कि एक पत्र ‘आगे-पीछे’ शिर्षक (शीर्षक) से गांधी मैदान में छपा था। उसे मैंने ही लिखा था।
मेरा पता है.
गौतम राजरिशी
द्वारा-रामेश्वर झा
पूरब बाजार,
सहरसा पिन-852201
नोट-क्या हम और आप पत्र-मित्र बन सकते हैं ?....
रंजन जी को प्रणाम,
ReplyDeleteइस खत को देखकर अचानक से स्मृतियों के जाने किस किस गलियारे में घूम आया मैं। वर्तनी की इतनी अशुद्धियां थीं मेरे उस पोस्टकार्ड में...हे भगवान!
अगली छुट्टी में आपसे मिलना होगा पटना में।