सहरसा, 6.12.90।
रंजन जी,
आपका पत्र मिला। बहुत-बहुत धन्यवाद।
दरअसल इतिहास का वो कड़ुवा सच आज के आधुनिक समाज की नियति बन चुका है। मैं ये मानता हूं कि उनकी (मिश्र जी की) कविता में जो मुसलमान सोचता है वो दरअसल यथार्थ जीवन में हिंदू की मनोदशा है। लेकिन ये तो मिश्र जी के सोचने का ढंग था। इतिहास के इस कड़वे सच के बारे में सोचने का हर किसी का अपना अलग ढंग हो सकता है और जरूरी नहीं है कि हर कोई इसे कड़वे सच के रूप में ही स्वीकार करे।
आपने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर अपने सोचने का ढंग दर्शाया, जो कि सचमुच सराहनीय था। सच कहूं, तो मुझमें इतनी तेज-तर्रार प्रतिक्रिया व्यक्त करने की क्षमता नहीं है।
आपने तो अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं। आशा है, मेरे पत्रों के जवाब उन्हीं शब्दों में मिलते रहेंगे।
धन्यवाद
गौतम राजरिशी
द्वारा-डा. रामेश्वर झा
पूरब बाजार,
सहरसा 852201.
इन तुच्छ खतों को आपने अब तक संभाल के रखा है....
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