लेखन की प्रासंगिकता पर बहस होनी चाहिए लेकिन स्वस्थ। पूर्वाग्रह और पक्षपात की भावना से ग्रसित होकर किसी रचनाकार की रचनाओं का अध्ययन उचित नहीं होता। वैसा आलोचक कभी भी सफल आलोचक नहीं बन सकता। देशकाल की परिस्थितियां रचनाकर के लेखन को प्रासंगिक और अप्रासंगिक करार कर देती हैं। मेरी राय में जो व्यवस्था से लड़ना सिखाता हो, बेहतर जिंदगी के लिए दृष्टि प्रदान करता हो वही लेखन प्रासंगिक है, वही लेखक असली भी है। प्रेमचंद ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने लोगों को अपनी रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ अंग्रेजी राज बल्कि शोषण और दमन को बरकरार बनाये रखनेवाली व्यवस्था से लड़ने की ताकत पैदा की। जो साहित्य हक और अधिकार की बात करता हो वही असली साहित्य है।
प्रख्यात नामवर सिंह ने कहा है कि ‘‘देश की मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों में कोई भी ऐसा रचनाकार नहीं है जो राजसत्ता के समक्ष खतरा या चुनौती पैदा कर सका हो। लेखकों ने आज तक जनमानस को यह ‘‘विजन’’ या ख्वाब नहीं दिया है जिसे लेकर वे जी सकें।
इतना ही नहीं, प्रेमचंद जयंती के उपलक्ष्य में 1 अगस्त 87 को त्रिवेणी सभागार में भाषण देते हुए नामवर सिंह ने कहा था- ‘‘प्रासंगिक लेखक वही है जो अपनी सरकार के सामने चुनौती खड़ी कर दे। हमारे यहां भी बहुत से लेखक ब्रिटिश हुकूमत द्वारा पकड़े गये और फांसी पर भी चढ़े, लेकिन अपने लेखन के कारण नहीं बल्कि राजनीतिक विश्वास एवं विचारधारा के बल पर।’’ उनका यह भी मानना है कि ‘‘ वाल्मीकि के बाद के पूरे साहित्य में क्या तुलसी, क्या निराला, क्या मुक्तिबोध, प्रेमचंद या रवीन्द्रनाथ-कोई भी स्पष्ट रूप से राजसत्ता को चुनौती नहीं दे सके और न राजसत्ता ने ही उनके लेखन को चुनौती माना।’’ मैं अपनी विद्वता का दावा तो नहीं कर सकता लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूं कि प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने न केवल व्यवस्था को चुनौती देने की बात की है बल्कि वर्तमान युग में समस्याओं से घिरी पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प भी प्रस्तुत किया है। हालांकि नामवर सिंह ने यह कहते हुए कि ‘‘जहां तक जनता को विजन या ख्वाब देने का सवाल है, तुलसी, निराला और प्रेमचंद ने झूठा ही सही लेकिन एक विजन दिया जरूर था’’, व्यवस्था को चुनौती देने की बात अंशतः स्वीकार भी कर लेते हैं। फिर नामवर सिंह की बातों में अंतर्विरोध क्यों ?
प्रेमचंद का साहित्य एक सच्चा विकल्प है। प्रेमचंद की रचना वर्तमान शासन प्रणाली के लिए एक चुनौती भी है। दिसंबर 1936 के ‘‘हंस’’ में प्रेमचंद ने लिखा था-‘‘परंतु अब एक नयी सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूंजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है...
...इस समाज व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया के किसी सभ्यतम कहानेवाली जाति को भी सुलभ नहीं।...हां, महाजनी सभ्यता और उसके गुरगे अपनी शक्ति भर उसका विरोध करें, उसके बारे में भ्रमजनक बातों का प्रचार करेंगे, जनसाधारण को बहकावेंगे, उसकी आंखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है उसकी विजय होगी ही।
राजू रंजन प्रसाद
शास्त्रीनगर, पटना-23।
प्रकाशन: जनशक्ति , 23 अप्रैल १९८८.
प्रख्यात नामवर सिंह ने कहा है कि ‘‘देश की मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों में कोई भी ऐसा रचनाकार नहीं है जो राजसत्ता के समक्ष खतरा या चुनौती पैदा कर सका हो। लेखकों ने आज तक जनमानस को यह ‘‘विजन’’ या ख्वाब नहीं दिया है जिसे लेकर वे जी सकें।
इतना ही नहीं, प्रेमचंद जयंती के उपलक्ष्य में 1 अगस्त 87 को त्रिवेणी सभागार में भाषण देते हुए नामवर सिंह ने कहा था- ‘‘प्रासंगिक लेखक वही है जो अपनी सरकार के सामने चुनौती खड़ी कर दे। हमारे यहां भी बहुत से लेखक ब्रिटिश हुकूमत द्वारा पकड़े गये और फांसी पर भी चढ़े, लेकिन अपने लेखन के कारण नहीं बल्कि राजनीतिक विश्वास एवं विचारधारा के बल पर।’’ उनका यह भी मानना है कि ‘‘ वाल्मीकि के बाद के पूरे साहित्य में क्या तुलसी, क्या निराला, क्या मुक्तिबोध, प्रेमचंद या रवीन्द्रनाथ-कोई भी स्पष्ट रूप से राजसत्ता को चुनौती नहीं दे सके और न राजसत्ता ने ही उनके लेखन को चुनौती माना।’’ मैं अपनी विद्वता का दावा तो नहीं कर सकता लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूं कि प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने न केवल व्यवस्था को चुनौती देने की बात की है बल्कि वर्तमान युग में समस्याओं से घिरी पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प भी प्रस्तुत किया है। हालांकि नामवर सिंह ने यह कहते हुए कि ‘‘जहां तक जनता को विजन या ख्वाब देने का सवाल है, तुलसी, निराला और प्रेमचंद ने झूठा ही सही लेकिन एक विजन दिया जरूर था’’, व्यवस्था को चुनौती देने की बात अंशतः स्वीकार भी कर लेते हैं। फिर नामवर सिंह की बातों में अंतर्विरोध क्यों ?
प्रेमचंद का साहित्य एक सच्चा विकल्प है। प्रेमचंद की रचना वर्तमान शासन प्रणाली के लिए एक चुनौती भी है। दिसंबर 1936 के ‘‘हंस’’ में प्रेमचंद ने लिखा था-‘‘परंतु अब एक नयी सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूंजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है...
...इस समाज व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया के किसी सभ्यतम कहानेवाली जाति को भी सुलभ नहीं।...हां, महाजनी सभ्यता और उसके गुरगे अपनी शक्ति भर उसका विरोध करें, उसके बारे में भ्रमजनक बातों का प्रचार करेंगे, जनसाधारण को बहकावेंगे, उसकी आंखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है उसकी विजय होगी ही।
राजू रंजन प्रसाद
शास्त्रीनगर, पटना-23।
प्रकाशन: जनशक्ति , 23 अप्रैल १९८८.