पटना, 14. 9. 96।
प्रिय अमरेन्दु जी
आपका पत्र पाकर मैं कृतज्ञ हुआ इसलिए साधुवाद भेज रहा हूं। आप क्षुद्र और कूपमंडूक हैं, मैं नहीं जानता। अज्ञान अब भी प्रबल है इसका साक्षी आपका खत, अब भी मेरे पास संजोकर रखा पड़ा है। आपके लिए ‘अज्ञानता ही संबल है’। मेरी जानकारी में अज्ञानता कोई शब्द नहीं, शब्द है अज्ञान और यह किसी का संबल नहीं। आगे आपकी मर्जी। वैसे मेरे पास कोई शब्दकोश नहीं है। आप मुझे भी बता देंगे, मेरा हिन्दी ज्ञान समृद्ध ही होगा।
बहुतों को आपका पत्र पसंद आया। पहली नजर में हमें भी जंचा था, बाद में लगा कि निरा शब्दजाल है जो अर्थ खो चुका है आपके अस्तित्व की तरह जो सिर्फ जिद में खड़ा है। मुझे अब वे पसंद नहीं आते जो शब्द को पत्थर की तरह दूसरों को आहत करने के लिए फेंकते हैं। पत्थर फेंककर आम तोड़ने की उमर तो रही नहीं, अभ्यास भी छूट गया।
खैर शब्दों को अपनी राह जाने दें, कर्म को पकड़ बैठें।
राजू रंजन प्रसाद
No comments:
Post a Comment