Tuesday, September 28, 2010

पत्र संख्या-4

पटना, 20. 8. 01.
आदरणीय व्यथित जी
प्रणाम।
आपको जानकर खुशी होगी कि कुछ लोगों को इकट्ठा कर मैंने ‘लोक दायरा’ नाम से त्रैमासिक (अघोषित रूप से) पत्रिका निकालनी शुरू की है। पिछले माह मामू (रामसुजान अमर) पटना आये थे। उन्हें लोक दायरा  की कुछ प्रतियां देने के साथ ही मैंने अपनी नई-पुरानी तमाम कविताएं सुना दी। उन्होंने भी उसे काफी धैर्य और गंभीरता के साथ एकल और अनौपचारिक काव्य-पाठ का भरपूर आनंद लिया। उनकी टिप्पणी थी कि मेरे गद्य से कविताएं कहीं बेहतर हैं। हालांकि यह सुनकर मैं बहुत प्रसन्न नहीं हुआ क्योंकि मैं अपने को मूलतः गद्य के लिए ही बना हुआ आदमी मानता हूं। अशोक हरियाणा गए  थे साक्षात्कार के क्रम में। लौटने के क्रम में वे  मामू से भी मिले । वे काफी खुश होते हुए बता रहे थे कि इस बार की पटना की उनकी यही उपलब्धि रही कि वे एक कवि को ढूंढ़ निकाले। ऐसा कहना उनकी महानता है। ऐसा कहते हुए मैं आत्म मुग्ध नहीं हूं बल्कि अपनी कविता के रिकॉग्निशन को लेकर थोड़ा उत्साहित  हूं। मुझे लगा कि कविता में मेरी अभिव्यक्ति हो जा रही है-इसी का संतोष है। कुमार मुकुल के संग्रह की समीक्षा के बारे में आपने लिखा था कि ‘बहुमत’ या विकल्प  के किसी अंक में आ जाएगा। अभी स्थिति क्या है लिखेंगे। आपकी अवांछित व्यस्तता जानकर दुःख होता है। लेकिन बहुत संजीदगी से हल ढूंढ़ निकालने की जरूरत है। एक अत्यंत ईमानदार आदमी को हिन्दी खोना नहीं चाहेगी। खासकर मैं, जो हॉस्टल (पटना) के दिनों से साक्षी रहा हूं, बहुत साधारण तरीके से नहीं खो सकता क्योंकि मुझे पता नहीं क्यों हमेशा एक ईमानदार आदमी की तलाश रही है चाहे वह साहित्य या संस्कृति का ही क्षेत्र क्यों न रहा हो। लोक दायरा  की प्रति शीघ्र भेज रहा हूं।
आपका
राजू

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