Friday, September 10, 2010

पत्र संख्या-34

गुलबीघाट, पटना-6: 24.10. 2000.

प्रिय भाई,
आपका कार्ड पाकर प्रसन्नता हुई, भले उसे एक रुपया जुर्माना देकर डाक से छुड़ाना पड़ा, क्योंकि आपने पंद्रह पैसेवाले कार्ड का उपयोग किया था, जबकि उसका दाम फिलहाल पच्चीस पैसे है। खैर!

‘कसौटी’ आपको पसंद आई, यह मेरे लिए संतोष की बात है। उसके पंद्रह अंक ही मुझे निकालने हैं और हफ्ता दिन पहले उसका पांचवां अंक भी दिल्ली में निकल गया है। आशा है, चार-छः दिनों में वह पटना भी पहुंच जाएगा। चौथे अंक में अशोक वाजपेयी पर मेरी टिप्पणी पर आपको कुछ एतराज है, तो ठीक ही है, क्योंकि मैं अब अगर-मगरवाली भाषा लिखने लगा हूं। कारण यह है कि युवावस्था की विदाई के साथ चीजें अपनी जटिलता में प्रकट होने लगती हैं और काला और सफेद रंग पहले की तरह साफ-साफ आकार दिखाई न पड़कर चितकबरे रूप में दिखलाई पड़ने लगते हैं।

आपने ‘साक्ष्य’ के अंक में मेरा लंबा लेख भी पढ़ा, इससे मुझे आत्मिक आह्लाद हुआ। बचपन में पढ़ाया गया था कि दर्शन, प्राण आदि शब्दों का बहुवचन में प्रयोग होता है, लेकिन यह सही नहीं है। हिंदी में ये शब्द दोनों वचनों में प्रयुक्त होते हैं, जो गलत नहीं है। किशोरीदास वाजपेयी का कहना है कि विसर्ग हिंदी की चीज नहीं, इसलिए ‘छः’ की जगह ‘छह’ लिखना चाहिए, जिससे ‘छहों’ बन सके। इस सुझाव को मान लिया गया, तो ‘छिः’ का क्या करेंगे? डा. कपिलमुनि तिवारी ठीक कहते हैं कि भाषा में कुछ चीजें rational होती हैं और कुछ irrational, जिससे उसमें सर्वत्र एकरूपता नहीं लाई जा सकती। मैं भी पहले ‘छह’ ही लिखता था, पर जानकारी बढ़ने के साथ वाजपेयी जी से पीछा छुड़ाया। ‘सोच’ शब्द कायदे से हिंदी में स्त्रीलिंग ही होना चाहिए, क्योंकि यह ‘सोचना’ क्रियापद से बना संज्ञापद है, जैसे ‘समझना’ से ‘समझ’, लेकिन इसका प्रयोग भी दोनों लिंगों में होता है। दिनकर जी से संबंधित वाक्य में ‘आया’ ही होना चाहिए। लगता है यह प्रूफरीडर का कमाल है। मेरे पास लेख की मूलप्रति कि मिलाकर देख सकूं।
अंत में: मित्र से डर कैसा ?

सधन्यवाद
नवल

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