Sunday, September 19, 2010

पत्र संख्या-37

जी डी 44 साल्टलेक,
कोलकाता, 30.07.2004।

आदरणीय राजू रंजन प्रसाद जी!

समकालीन कविता-
वर्ष 1-अंक 3 के पन्ने-
पंक्तियां आपकी-
वैसी भी होती है एक शाम
जब आंगन में पड़ा
मिट्टि (मिट्टी) का चूल्हा उदास होता है
और एक शाम आती है
वीरान गांवों में
आतंक और भय की चुप्पी के साथ
ख़ूबसूरत पंक्तियां-
खू़बसूरत कविता-
काव्यम् परिवार की तथा मेरी बधाई-

आशा है आप सानंद हैं.
आपका
प्रभात पाण्डेय 

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