Tuesday, August 17, 2010

पत्र संख्या-11

आमगोला, मुजफ्फरपुर, 2002
 
प्रिय राजू जी,
सादर नमस्कार, 
आपका कार्ड तो समय पर मिला था, किंतु व्यस्तता बहुत थी, उत्तर देना भूलता रहा! खैर,
आपने एक चुनौती को स्वीकार किया है। मार्ग अवश्य कंटकाकीर्ण है, तथापि आप जैसे ऊर्जावान व्यक्ति ही ऐसी चुनौतियाँ स्वीकार कर, उन्हें हल भी करते हैं। यह मुझे विश्वास है आपको सफलता अवश्य मिलेगी। ‘‘दायरा’’ ने जिस प्रकार प्रारंभिक लघु रूप में ही अपना महत्त्व स्थापित करके ध्यानाकर्षण किया है, वह श्लाघ्नीय है।
 
मेरी प्राचीन कल्पना है, कि ऐसी कोई स्पष्टवक्ता पत्रिका हो, जो ‘‘पाठक मंच’’ का कार्य भी करे। ध्यातव्य है, कि साहित्यिकता को केन्द्र बनाकर छपनेवाली पत्रिकाएँ अपनी प्रशस्तियाँ ही अधिक छाप रही हैं, आलोचना तथा सुझावों के प्रति वे सामूहिक मौन रखती हैं। ‘‘दायरे’’ (दायरा) छोटी, प्रारंभिक पत्रिका है, तथापि ऐसी अनेक पत्रिकाएँ हैं जो अच्छी तरह से स्थापित हैं। बहुत विज्ञापन बटोरती भी हैं, तथा कागज, छपाई, व्यवस्था, डाक आदि व्ययों में कोताही नहीं करतीं, किंतु मसिजीवी लेखकों को ही सौ-पचास का पारिश्रमिक तक नहीं देतीं! अच्छे लेखक अपनी रचनाओं से उन का मान बढ़ाते हैं, किंतु वे अपनी उत्तम रचनाएँ रु. देनेवाली पत्रिकाओं को अधिक देने पर यों ही मजबूर हो जाते हैं! इसपर ये पत्रिकाएँ मौन हैं। यह प्रश्न तो पहले कुछ लोगों ने सामने रखा था, किंतु पत्रिकाएँ मौन रहीं और मामला वहीं ठप रह गया! आपका क्या विचार है ?
 
सधन्यवाद
सादर आपका
चन्द्रमोहन प्रधान

No comments:

Post a Comment