Saturday, August 28, 2010

पत्र संख्या-22

हाजीपुर, जहानाबाद, 20. 3. 96। 

प्यारे बाबा,

हम क्षुद्र लोग हैं। कूपमंडूक हैं। अज्ञानता ही संबल है। आप शुभेच्छु हैं, मेरे लिए आपकी चिन्ता लाजमी है। आप तत्वदर्शी हैं, त्रिकालदर्शी भी। बाप रे! एक ही डूबकी में मेरा भूत, वर्त्तमान और भविष्य तीनों खोज लाना और उसे पूरे सज-धज के साथ बयान करना साधारण कार्य नहीं है। काबिलेतारीफ है। यह मामूली खत नहीं है, एक पूरा घोषणा-पत्र है। कदम-कदम पर चेतावनी, एक से बढ़कर एक नसीहतें और आखिर में मेरी समाप्ति की भविष्यवाणी। आप भाग्य-विधाता हैं, इससे आपकी शोभा में चार-चांद लगता है। नामवर जी को आग फूंक चुकी है। उनमें आप जैसी अकलियत कहां? आपकी बुद्धि की बारूद और गोलन्दाजी के सामने वे नहीं ठहर सकेंगे। हम जैसे लोग उनके पीछे भागें, यह बड़ा संगीन अपराध है, आप चुप न बैठ सकें, यह उचित है। हम जैसे लोगों से कोई उम्मीद बांधे इस पर भरोसा नहीं करता। हंसी जरूर आती है। ताज्जुब भी होता है। फिर भी एक-आध अक्ल का दुश्मन निकल भी आये तो आप जैसा तेज-तर्रार स्कॉलर उसके भ्रम का निवारण नहीं कर पायेगा, ऐसा सोचना पाप होगा। एक विनती है। आप उसे एक चिट्ठी कम-से-कम पोस्ट तो कर ही सकते हैं। इस तरह मैं बैठे-बिठाये एक बड़े भारी कर्ज से मुक्त हो जाऊंगा।

मैं हमला करने में दक्ष नहीं हूं। विश्वास भी नहीं रखता। भाल-रक्षा तो प्राणीमात्र का धर्म है। आशा है जब-तब इसी तरह कृतार्थ करते रहेंगे, बस...।
आपका
अमरेन्द्र

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