Wednesday, August 11, 2010

पत्र संख्या-5

भिलाई, 27. 11. 2000।

प्रिय भाई राजू,

तुम्हारा पत्र और मुकुल जी के कविता संग्रह की समीक्षा मिली। मैंने अभी-अभी मुकुल जी का संग्रह दुबारा पढ़ा है और तुमसे ठीक पहले उन्हें पत्र भी लिख चुका हूं। ऐसे में तुरन्त तुम्हारी समीक्षा से गुजरना एक सुखद अनुभव से दो चार होना है। तुम्हारी समीक्षा बहुत सारे पेशेवर और धंधई समीक्षकों और आलोचकों से बहुत अच्छी लगी। भाषा भी धारदार, रचनात्मक और वैचारिक उष्मा से भरी हुई है। कोई विश्वास नहीं करेगा कि यह समीक्षा एक इतिहास के ईमानदार विद्यार्थी ने लिखी है। मुकुल जी की कविता की ताकत, सीमाओं और अंतर्विरोधों को तुमने ठीक ही पहचाना है। शहर विरोध वाला प्रसंग कुछ ज्यादा लंबा हो गया है पर अंतर्विरोध की ओर ईमानदारी से ध्यान दिलाकर तुमने अच्छा ही किया है। बाजार, सामाजिक संघर्ष आदि के परिप्रेक्ष्य में उनकी कविताओं की व्याख्या बिल्कुल सटीक है पर पता नहीं क्यों मुकुल जी की प्रकृति और अमूर्त मानवीय प्रवृत्तियों से सम्बन्धित अत्यंत ही मूर्त और बिम्बधर्मी कविताएं कैसे तुम्हारी पकड़ से छूट गयी और तुमने उस पर बिल्कुल नहीं लिखा, हालांकि एक जगह तुमने इस ओर ध्यान अवश्य दिलाया है। मेरा मानना है कि मुकुल जी का कवि मन प्राकृतिक दृश्यों के बीच ही ज्यादा रमता है और वहीं उनकी कविता की रंगत ज्यादा खिलती है। प्रकृति का आकर्षण उन्हें इस कदर खींचता है कि उस पल में वे जगत की असुंदरताओं और विडंबनाओं को प्रायः भूल ही जाते हैं। मुझे लगता है कि जिस तरह वे शहरों से भागकर गांव और कस्बों की ओर जाते हैं, उसी तरह जीवन की कुरूपताओं से उबकर वे प्रकृति के सौंदर्य और रोमान के पनाह लेते हैं। रोमान अगर यथार्थ के साथ घुल मिल जाये तो वह कविता की बहुत बड़ी ताकत बन जाता है। इस संगह में कवि का व्यक्तित्व यथार्थ और प्रकृति प्रेम तथा रोमान के बीच विभाजित दिखायी पड़ रहा है। एक की क्षतिपूर्ति वह दूसरे से करता हुआ दिखायी पड़ता है। ‘पहाड़’ और ‘बारिश’ जैसी कुछ कविताओं में ये दोनों व्यक्तित्व एक दूसरे से घुल-मिल गये हैं, अतः वहां कविता का सौंदर्य कुछ और है। मुकुल जी को पढ़ते हुए हिन्दी कवियों में शमशेर ही मुझे बहुत याद आये। इस संग्रह की कुछ सीमाएं तो हैं पर उससे उबरने के रास्ते भी मुझे इसी में दिखायी पड़ रहे हैं। अतः यह संग्रह स्वागत योग्य है।

इधर डेढ़ दो महीनों में कई महत्वपूर्ण संग्रह पढ़े। उन सभी संग्रहों से कहीं ज्यादा अच्छी और सुन्दर कविताएं मुझे इस संग्रह में पढ़ने को मिलीं। इन कविताओं पर लिखना इन पर अहसान करना नहीं है, बल्कि अपने आलोचनात्मक कर्म की चुनौतियों को स्वीकार करना ही है। अतः इस संग्रह पर लिखने के तुम्हारे सुझाव को मैं सिफारिश के रूप में बिल्कुल नहीं ले रहा। इस पर लिखने की खुद मेरी हार्दिक इच्छा है। लेकिन खुद की रचनात्मक स्थिति और कुछ कामों का उलझाव अभी फिलहाल मुझे इसकी इजाजत नहीं दे रहा है। किसी भी कवि को पढ़ना उसे अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना लेना है। मुकुल जी की ये कविताएं भी मेरे रचनात्मक व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन गयी है। यह सही है कि इस संग्रह पर लिखे जाने का उचित अवसर यही है। लेकिन अपने कुछ कामों के साथ अभी इस कार्य का सामंजस्य मैं नहीं बैठा पा रहा हूं। यह मेरी पीड़ा भी है और विवशता भी। लेकिन इन कविताओं का ऋण मेरे ऊपर है और मुकुल जी को कहना कि उनका ऋणी हूं। ऋण चुकाऊंगा जरूर, लेकिन कब अभी इसका वादा नहीं करूंगा।

तुम्हारी समीक्षा अच्छी है। यह ‘विकल्प’ या ‘बहुमत’ दोनों में से कहीं अवश्य छप जायेगी। ‘विकल्प’ के नक्सलबाड़ी का दूसरा अंक कंपोज हो चुका है। तीसरा अंक आने में संभवतः कुछ देर लगे। अतः ‘बहुमत’ के किसी अच्छे अंक में इसे प्रकाशित किये जाने का प्रयास करूंगा। 

शेष कुशल है। तुम्हारा पत्र पाकर बहुत अच्छा लगा। समय पर पत्र न लिख पाना मेरी बहुत बड़ी कमजोरी है पर तुमलोगों की याद हमेशा बनी रहती है। मुकुल जी को मेरी ओर से बधाई देना। गर्मी की छुट्टियों में तुमलोगों से न मिल पाने का गहरा मलाल है। घर की परिस्थितियां उस समय बहुत ही विषम थीं और मैं अत्यधिक तनावग्रस्त था। अतः चाहते हुए भी नहीं आ पाया। मित्रों से कहना वे मुझे माफ करेंगे। 

तुम्हारा 
सियाराम शर्मा 
शासकीय महाविद्यालय उत्तई, दुर्ग, छत्तीसगढ़।

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