Friday, August 13, 2010

पत्र संख्या-7

लोहियानगर, कंकड़बाग, पटना-20, 21. 8. 03।

राजू भैया
प्रणाम।

जभी घर से लौटा तभी आपकी चिट्ठी मिली-बहुत सुखद लगा। यह मेरे जैसे ‘नवजात’ के लिए खुशी से मर जाने का विषय है कि आपको मेरी कविताएं पसंद आयीं-क्या वाकई आयीं भैया ? मुझे इस शहर के प्रायः हर ख्यात-कुख्यात रचनाकार जानते हैं-संभवतः सबने ‘‘हिन्दुस्तान’’ देखा होगा। पर, वे कविताएं किसी (को) ‘बुरी’ तक न लगीं-अच्छी लगी होंगी, मैं कल्पना क्यों और कैसे करूं ? काश कि आप जैसे लोग ही होते-मैं आपका बहुत आभारी हूं। सचमुच, मुझे बल मिला है। मेरी कुछ कविताएं ‘तद्भव’, ‘हंस’, ‘कथन’ में भी अटकी हैं, पता नहीं वे पाठकों के सामने कब पटकी जाएंगी ? खैर, लौटें अपनी बात पर। आप साधिकार मुझे ‘लोकदायरा’ बेचने के लिए दे सकते हैं, कभी भी। मैं कोशिश करूंगा कि हर अंक की दस प्रति बेच दूं। कुछ विशेष सहयोग भी दिला दूंगा। अपना सहयोग तो खैर दूंगा ही। मैं ग्रासरुट पर होने वाले कामों में हीं तो ‘होम’ होने के लिए बना हीं हूं। दो कविताएं भी भेज रहा हूं-पसंद न आने पर पूरे अभिभावकीय उत्तरदायित्व के साथ सूचित कर देंगे-दूसरी दूंगा।

विशेष मिलने पर।
आपका अपना
हरेप्रकाश उपाध्याय

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