Saturday, August 14, 2010

पत्र संख्या-8


सिकरहुला, कारिया, बेगूसराय, 30.10.03।
 
प्रिय महोदय,
 
आपका आलेख अक्तूबर ‘03 हंस
इतिहास और अतीत के बारे में, अकादमिक तौर पर शायद पहली दफा और वह भी, बिल्कुल सहज तरीके से लिखा ऐसा आलेख पढ़कर जी खुश हो गया। आपसे यही उम्मीद थी। (चूंकि पटना के बौद्धिक वर्ग का एक अस्थायी सदस्य होने के नाते, अपनापन तो लगता ही है)! ज्यादा बावेला तब मचता, जब आपने बौद्धिक माफियाओं की उन स्थापनाओं को सप्रमाण, सोदाहरण ध्वस्त किया होता जिन पर उन्होंने अपने वैचारिक कंगूरे खड़े कर रखे हैं। एक कोई चंद्रभान प्रसाद (भाया-सहारा दैनिक) हैं, वह अंग्रेजी से शिक्षा को, दलितोद्धार का एक मंत्र मानता है। इस पर तो एक दो पेजी चिट्ठी हंस को दे रहा हूं। पर और भी हैं, एक कोई श्योराज सिंह हैं, बाल्मीकि, या फिर मुस्लिम धार्मिक पर्सनल लॉ (पर्सनल मामलों की पर्सनल पंचैती) के पहरुए!
अतीत का उपयोग करके ही ऐसे मठाधीशों ने अपनी दुकान चला रखी है। जो इतिहास में जायें तब तो कोई बात ही नहीं बचेगी। पर, सवाल ये भी है कि, इतिहासकारों की खेमाबंदी का क्या होगा, जो खुद भी अलग विचारधाराओं पर आश्रित हैं-विचारधाराओं को बढ़ावा देते हैं। ताजा प्रकरण NCERT  का है। शेष पुनः।
आपका
मयंक

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